Posts

Showing posts with the label विज्ञान (Science)

प्रजाति के सम्बन्ध में आधुनिक विचार (MODERN VIEWS ON RACE)

प्रजाति के सम्बन्ध में आधुनिक विचार (MODERN VIEWS ON RACE) यूनेस्को विश्व के सभी देशों का परस्पर सामूहिक विज्ञान-शिक्षा-संस्कृति संघ है। यह विश्व के समस्त मानव वर्गों के हित में कार्य करता है। यह विभिन्न प्रकार के अनुसन्धान कार्य भी करता है। यूनेस्को ने मानव प्रजाति से सम्बन्धित महत्वपूर्ण अनुसन्धान भी किये हैं। यूनेस्को (UNESCO) ने 1952 में एक सम्मेलन आयोजित किया था जिसमें विभिन्न मानवशास्त्रियां एवं प्राणिशास्त्रियों ने प्रजाति की धारणा पर विचार किया था और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि' 1. इस धरती पर बसने वाले सभी मानव एक ही जाति के सदस्य है जिन्हें मेघावी मानव (Homo Sapiens) कहते है। 2. शारीरिक लक्षणों में अन्तर पर वंशानुक्रमण तथा पर्यावरण दोनों का ही प्रभाव पड़ता है। 3. वंशानुक्रमण में अन्तर दो प्रक्रियाओं द्वारा आता है— उत्परिवर्तन (Mutation) और अन्तर्वर्ण विवाह (Cross-marriage) | 4. एक प्रजाति को दूसरी प्रजाति से शारीरिक लक्षणों के आधार पर अलग किया जा सकता है किन्तु प्रत्येक शारीरिक लक्षण कुछ मा

नर व मादा जनन तंत्र (nar mada janan tantra 2)

Page 2 जनन स्वास्थ्य - जैसा कि हम देख चुके हैं, लैंगिक परिपक्वता एक क्रमिक प्रक्रम है तथा यह उस समय होता है जब शारीरिक वृद्धि भी होती रहती है । अतः किसी सीमा ( आंशिक रूप से ) तक लैंगिक परिपक्वता का अर्थ यह नहीं है कि शरीर अथवा मस्तिष्क जनन क्रिया अथवा गर्भधारण योग्य हो गए हैं । हम यह निर्णय किस प्रकार ले सकते हैं कि शरीर एवं मस्तिष्क इस मुख्य उत्तरदायित्व के योग्य हो गया है ? इस विषय पर हम सभी किसी न किसी प्रकार का दबाव है । इस क्रिया के लिए हमारे मित्रों का दबाव भी हो सकता है, भले ही हम चाहें या न चाहें । विवाह एवं संतानोत्पत्ति के लिए पारिवारिक दबाव भी हो सकता है । संतानोत्पत्ति से बचकर रहने का, सरकारी तंत्र की ओर से भी दबाव हो सकता है । ऐसी अवस्था में कोई निर्णय लेना काफ़ी मुश्किल हो सकता है । यौन क्रियाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव के विषय में भी हमें सोचना चाहिए । हम कक्षा 9 में पढ़ चुके है कि एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को रोगों का संचरण अनेक प्रकार से हो सकता है क्योंकि यौनक्रिया में प्रगाढ़ शारीरिक संबंध स्थापित होते हैं अत: इसमें आश्चर्य की कोई बात नह

फ्लेमिंग के बाएं हाथ का नियम ( flaming ke baye Hath ka Niyam )

Image
फ्लेमिंग के बायें हाथ का नियम एक स्मृतिसहायक विधि है जो चुम्बकीय क्षेत्र में स्थित किसी धारावाही चालक पर लगने वाले चुम्बकीय बल की दिशा बताने के लिये प्रयोग किया जाता है। चित्र में दिखाया गया है कि यदि बायें हाथ की प्रथम तीन अंगुलियाँ एक-दूसरे के लम्बवत फैलायी जाँय और तर्जनी चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा में हो एवं मध्यमा चालक में बहने वाली धारा की दिशा में हो तो उस चालक पर लगने वाला चुम्बकीय बल अंगुठे की दिशा में होगा। जब किसी धारावाही चालक को चुम्बकीय क्षेत्र में रखा जाता है तो चुम्बकीय क्षेत्र में धारावाही चालक तार पर बल कार्य करता है। फ्लेमिंग का बायें हाथ का नियम (fleming’s left hand rule) दांये हाथ की हथेली का नियम (Right hand palm rule ) अब हम इन दोनों नियमो को विस्तार से पढ़ते है और देखते है की इनका उपयोग कर हम कैसे चुम्बकीय क्षेत्र में रखे चालक पर लगने वाले बल की दिशा ज्ञात कर सकते है। 1. फ्लेमिंग का बायें हाथ का नियम इस नियमानुसार ” जब हम हमारे बाएं हाथ के अंगूठे , मध्यिका तथा तर्जनी को एक दूसरे के लंबवत व्यवस्थित करते है तो तर्जनी चुम्बकीय क्षेत्र (B) की दिशा दर

बायो गैस ( Bio Gas )

Image
बायो गैस ( Bio Gas ) हमारे देश में कृषि एवं पशुपालन को विशेष महत्व दिया जाता है । यहाँ कृषि अपशिष्ट तथा पशुओं की बहुतायत होने के कारण गोबर सरलता से उपलब्ध है । ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इन्हें सीधे जलाकर ऊर्जा प्राप्त करने का प्रचलन है । इससे ऊर्जा का एक बड़ा भाग प्रकृति में विलीन हो जाता है तथा पर्यावरण को भी हानि होती है । अब इसका उपयोग गैसीय ईंधन प्राप्त करने के लिए किया जाता है जिसे बायोगैस या जैव गैस कहते है । पशुओं के गोबर तथा कृषि अवशिष्ट का जब पानी के साथ ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटन होता है तब एक गैसीय मिश्रण प्राप्त होता है, जिसे बायो गैस कहते है । बायो गैस मेथेन ( CH 4 . ), कार्बन डाइआक्साइड ( CO 2 ), हाइड्रोजन ( H 2 ) नाइट्रोजन ( N 2 ) तथा हाइड्रोजन सल्फाइड ( H 2 S ) का मिश्रण है । इसका मुख्य घटक मिथेन है । बायो गैस को गैस स्टोव में जलाकर ऊष्मा प्राप्त की जा सकती है । इसका उपयोग सड़कों में प्रकाश करने के लिए तथा इंजन चलाने के लिए भी किया जा सकता है । हमारे देश में सामान्य रूप से प्रचलित बायोगैस के दो प्रकार के डिजाइन इस्तेमाल किए

रजत दर्पण परीक्षण (rajat darpan parikshan)

Image
रजत दर्पण परीक्षण फार्मेल्डिहाइड अत्यन्त आसानी से ऑक्सीकृत हो जाता है अत : यह प्रवल अपचायक के रूप में कार्य करता है । फार्मेल्डिहाइड , टॉलेन अभिकर्मक को चाँदी में अपचयित कर देता है । AgNO 3 + NH 4 OH → AgOH + NH 4 NO 3 2AgOH Ag 2 o * ↓ + H 2 o HCHO + Ag 2 O → HCOOH + 2Ag अभिक्रिया में मुक्त चाँदी , परखनली की आन्तरिक दीवार पर जम जाती है इससे परखनली दर्पण की तरह चमकने लगती है । अत : इसे रजत दर्पण परीक्षण कहते हैं ।

सौर सेल ( Solar cell )

Image
सौर सेल ( Solar cell ) सौर सेल ( Solar cell ) सौर सेल एक ऐसी युक्ति है , जो सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में रूपान्तरित करती है । इसको बनाने में सिलिकॉन का उपयोग किया जाता है । धूप में रखने पर किसी प्रारूपी सौर सेल से 0.5 से 1.0 वोल्ट तक विभव विकसित होता है तथा लगभग 0.7 वाट विद्युत उत्पन्न की जा सकती है । जब बहुत अधिक संख्या में सेलों को संयोजित करते हैं तो इस व्यवस्था को सौर पैनल कहते हैं । सौर सेल द्वारा दिष्ट धारा प्राप्त होती है । चूंकि ये सेल सूर्य के प्रकाश में ही काम करते हैं , अतः इन सेलों से उत्पन्न विद्युत ऊर्जा को संचायक बैटरी में संग्रहित करके रखा जाता है ताकि आवश्यकतानुसार इसका उपयोग किया जा सके । जिन क्षेत्रों में विद्युत आपूर्ति करना दुर्गम होता है , उन क्षेत्रों में सौर - सेल अधिक उपयोगी और कारगर सिद्ध हुए हैं । कृत्रिम उपग्रहों और अंतरिक्ष अन्वेषक युक्तियों जैसे मार्स ऑर्बिटरों में सौर - सेलों का उपयोग प्रमुख ऊर्जा स्रोत के रूप में किया जाता है । इसके अतिरिक्त रेडियो और बेतार संचार यंत्रों ( वायरलेस ) , टेलीविजन या दूरदर्शन रिले केन्द्रों मैं, यातायात संकेतों

सौर जल ऊष्मक (saur jal ushmak)

Image
सौर जल ऊष्मक सौर जल ऊष्मक इसे बनाने में ताँबे के पाइप ( नलिका ) का उपयोग किया जाता है, जिन्हें बाहर की ओर से काला रंग कर दिया जाता है । इस नलिका का एक सिरा ठण्डे जल स्रोत से जुड़ा होता है, जबकि दूसरे सिरे से गर्म जल प्राप्त किया जाता है । इस उपकरण को मकान या बिल्डिंग की छत पर या उस स्थान पर लगाया जाता है, जहाँ सूर्य की किरणें अधिक आती हों ठण्डा जल जब नली में से होकर प्रवाहित होता है तो उष्मा अवशोषित कर गर्म होने लगता है । गर्म जल का घनत्व ठण्डे पानी की तुलना में कम होता है, जिससे यह ऊपर ही रहता है । तथा उपयोग के लिए पाइप से बाहर निकाला जा सकता है । चित्र के अनुसार एक संग्रहण टंकी का उपयोग किया जाता है । यह पानी गर्म करने के लिए एक आदर्श सयंत्र है । इससे लगभग 80° C तक पानी को गर्म किया जा सकता है । इस सयंत्र के उपयोग से विद्युत ऊर्जा के खर्च में कमी की जा सकती है । इस प्रकार का सयंत्र वहाँ ज्यादा उपयोगी है, जहाँ गर्म पानी की आवश्यकता निरन्तर पड़ती है, जैसे- घर, होटल, अस्पताल आदि ।

सोलर कुकर ( Solar Cooker )

Image
सोलर कुकर ( Solar Cooker ) सोलर कुकर धातु अथवा प्लास्टिक का चौकोर डिब्बा होता है , जिसमें अन्दर ऊष्मारोधी पदार्थ का अस्तर लगा होता है , ताकि डिब्बे के अन्दर की ऊष्मा बाहर न जा सके । डिब्बे के अन्दर की दीवारें काली कर दी जाती है । डिब्बे के ऊपरी भाग पर दो समतल पारदर्शी कांध से बना एक ढक्कन होता है , जो सूर्य प्रकाश को डिब्बे के भीतर प्रवेश करने देता है । डिब्बे के ऊपरी भाग पर एक समायोज्य ( adjustable ) दर्पण लगाया जाता है जिससे परावर्तित होकर प्रकाश डिब्बे के भीतर जा सके । सोलर कुकर के भीतर खाना पकाने के लिए धातु के डिब्बे रखे जाते हैं , जिनकी बाहरी सतह काली होती है । इस कुकर का अंदरूनी ताप मौसम के अनुसार दो - तीन घण्टों में 100° C से 140° C तक हो जाता है । इस सोलर कुकर में उन खाद्य पदार्थो को पकाया जा सकता है , जिन्हें कम ताप पर धीमे - धीमे पकाने की आवश्यकता होती है ।

विज्ञान के रोचक तथ्य (vigyan ke rochak tathya)

विज्ञान के रोचक तथ्य भौतिक रसायन की वह शाखा जिसके अन्तर्गत रासायनिक अभिक्रियाओं की दर व अभिक्रियाओं की क्रिया विधि का अध्ययन किया जाता है , रासायनिक बलगतिकी कहलाती है । वे अभिक्रियाएँ जो अभिकारकों को आपस में मिलाने पर तत्काल सम्पन होती है , तीन अभिक्रियाएँ कहलाती हैं तथा जो अभिक्रिया धीरे - धीरे संपन्न होती है , मंद अभिक्रियाएँ कहलाती हैं । लोहे में जंग लगना , सीमेन्ट का जमना आदि मंद अभिक्रियाओं के उदाहरण है । किसी रासायनिक अभिक्रिया की दर इकाई समय अन्तराल में अभिकारक अथवा उत्पाद के सान्द्रण में हुए परिवर्तन के बराबर होती है । अभिक्रिया की दर सदैव धनात्मक होती है । रासायनिक अभिक्रिया दर की इकाई मोल प्रति लीटर प्रति सेकेण्ड ( mole L -1 s -1 ) होती है । ऐसी अभिक्रिया जिनमें ऊष्मा उत्सर्जित होती है , ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया कहलाती है । ऐसी अभिक्रिया जिनमें ऊष्मा का अवशोषण होता है ऊष्माशोषी अभिक्रिया कहलाती है । वे रासायनिक अभिक्रियाएँ , जो प्रकाश को उपस्थिति में संपन्न होती हैं प्रकाश रासायनिक अभिक्रियाएँ कहलाती हैं । जैसे- प्रकाश संश्लेषण, फोटोग्राफी आदि । अभिकारकों की

भू - तापीय ऊर्जा (bhu - tapiya urja)

भू - तापीय ऊर्जा पृथ्वी के गर्भ में निरन्तर कुछ परिवर्तन होते रहते है । पृथ्वी के अन्दर कुछ स्थानों की चट्टानें काफी गर्म होती है । चट्टानों में यह ताप चट्टानों में स्थित रेडियोधर्मी पदार्थों के विघटन ( fission ) से प्राप्त होता है । ऐसे क्षेत्र जहाँ पृथ्वी के सतह के नीचे तप्त चट्टानें होती है तप्त क्षेत्र कहलाते हैं । जब पृथ्वी के गर्भ में स्थित जल इन चट्टानों के सम्पर्क में आता है तो जल वाष्पित होकर किसी भाग में एकत्रित हो जाता है । जब दो चट्टानों के बीच काफी मात्रा में यह वाष्म जमा हो जाती है तो इसका दाव बढ़ जाता है । इन चट्टानों में सुराख कर पाइप डालकर वाष्प को निकाला जाता है । पाइप से वाष्प काफी तेजी से बाहर निकलती है , जिसका उपयोग जनरेटर के सॉफ्ट से लगे टरबाइन की पंखुड़ियों को घुमाने में किया जाता है टरबाइन के घूमने से विद्युत ऊर्जा उत्पन्न होती है ।

नाभिकीय ऊर्जा से हानि (nabhikeey urja se hani)

नाभिकीय ऊर्जा से हानि ( 1 ) नाभिकीय विखण्डन द्वारा नाभिकीय ऊर्जा के उत्पादन में बेरियम 139 तथा क्रिप्टॉन एक्टिव पदार्थ उत्पाद के रूप में प्राप्त होते है , जो कि मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं । रेडियो धर्मी विकिरण से प्रभावित व्यक्ति को कैंसर जैसी घातक बीमारियाँ हो सकती हैं । ( 2 ) नाभिकीय विकिरण , क्षरण द्वारा वातावरण में प्रवेश कर सकते हैं । अब तक इस तरह की दो बड़ी दुर्घटनाएं हो चुकी हैं - ( 1 ) संयुक्त राज्य अमेरिका के थ्रीमाइल द्वीप पर ( 2 ) तत्कालीन सोवियत संघ के चेरनोबिल नामक स्थान पर स्थित नाभिकीय रियक्टर में । ( 3 ) नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन की विभिन्न प्रक्रियाओं जैसे यूरेनियम अयस्क के खनन , संवर्धन तथा नाभिकीय रियक्टर में विखण्डन से उत्पन्न , " रेडियो धर्मी नाभिकीय कचरे से " वनस्पति एवं प्राणी जगत को गंभीर खतरा है । ( 4 ) नाभिकीय विकिरण से प्रभावित मनुष्य में आनुवांशिक विकृति उत्पन्न हो सकती है , जिसका दुष्प्रभाव आने वाली कई पीढ़ियों तक रहता है । ( 5 ) नाभिकीय ऊर्जा पर आधारित परमाणु बम अत्यंत विनाशकारी होता है । द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने जापान

नाभिकीय ऊर्जा (nabhikeey urja)

नाभिकीय ऊर्जा नाभिकीय ऊर्जा से विद्युत का उत्पादन करने में कार्बन डाईऑक्साइड गैस नहीं निकलती है । अत : नाभिकीय ऊर्जा के उपयोग से वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा नही बढ़ती है । कुछ परमाणुओं के नाभिक में अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा संचित रहती है जिसे नाभिकीय ऊर्जा कहते हैं । यह ऊर्जा निम्न दो अभिक्रियाओं में मुक्त होती है ( 1 ) नाभिकीय संलयन ( 2 ) नाभिकीय विखण्डन नाभिकीय संलयन जब दो हल्के नाभिक परस्पर संयुक्त होकर एक भारी नाभिक बनाते हैं तो इस प्रक्रिया को नाभिकीय संलयन कहते हैं । इस प्रक्रिया में द्रव्यमान की क्षति होती है जो ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है । उदा. - भारी हाइड्रोजन अर्थात् ईयूटीरियम के नाभिकों के संलयन से हीलियम नाभिक प्राप्त होता है । इस संलयन अभिक्रिया को निम्न समीकरणों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है । पहले ड्यूटीरियम के दो नाभिक संलयित होकर ट्राइटियम तथा प्रोटोन बनाते हैं 1H 2 + 1H 2 1H 3 + 1H 1 + 4MeV ( रपूटोरियम ) ( इयूटोरियम ) ( ट्राइटियम ) ( प्रोट्रॉन He +17.6 Mev ( हाइटियम ) ( इयूटोरियम ) ( हीलियम ) ( न्यूट्रॉन ) इस तरह इस अभिक्रिय

विद्युत के उपयोग में सावधानियाँ (vidyut ke upyog me savdhaniya)

विद्युत के उपयोग में सावधानियाँ हमारे घरों में प्रयुक्त होने वाली धारा का विभवांतर लगभग 220 वोल्ट होता है । इतने वोल्ट की प्रत्यावर्ती धारा युक्त किसी नंगे तार ( विद्युत रोधन रहित तार ) को छूने पर तीव्र आघात लगता है, जिससे हमारा शरीर क्षतिग्रस्त हो सकता है । अत : हमें विद्युत का उपयोग करते समय कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए । घर के सभी विद्युत उपकरण भू - सम्पर्क तार से जुड़े होने चाहिए । घरेलू परिपथ में प्रयुक्त विद्युत तार प्लग, साकेट नथा होल्डर उच्च गुणवत्ता के होने चाहिए । उच्च शक्ति के विद्युत उपकरणों जैसे गोजर, एयर कंडीशनर, कूलर आदि के लिए 15 एम्पियर विद्युतधारा के प्लग, साकेट तथा स्विच का प्रयोग करना चाहिए । घरेलू परिपथ में अतिभारण ( overloading ) तथा लघुपथन ( Short Circuit ) से होने वाली क्षति से बचने के लिए परिपध में उचित गुणवत्ता के फ्यूज का उपयोग करना चाहिए । विद्युत परिपथ में लगे स्विच को ऑन - ऑफ करते समय हमारे हाथ गीले नहीं होने चाहिए । घरेलू विद्युतीय उपकरणों जैसे विद्युतइस्त्री, मिक्सी आदि का उपयोग अचालक पदार्थ लकड़ी पर खड़े होकर या पैर में रबर या प्लास्टिक की गप्प

शुष्क सेल (shushk cell)

Image
शुष्क सेल सामान्यत : टार्च , ट्रांजिस्टर , रेडियो , और खिलौनों में हम शुष्क सेल का उपयोग करते हैं । शुष्क सेल में प्रयुक्त रासायनिक पदार्थ वोल्टाइक सेल की तरह द्रव रूप में नहीं होता है इसलिए इसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना तथा इसका उपयोग करना आसान होता है । शुष्क सेल में जस्ते के बेलनाकार पात्र के मध्य में एक कार्बन की छड़ होती है । कार्बन की छड़ और जस्ते के बेलनाकार पात्र के मध्य में अमोनियम क्लोराइड ( नौसादर ) और जिंक क्लोराइड को लेई को मैंगनीज डाईऑक्साइड और कार्थन के चूर्ण के साथ मिलाकर भर दिया जाता है । इसके पश्चात् सेल का ऊपरी सिरा मोम से बंद कर देते हैं । शुष्क सेल में कार्बन की छड़ धन धुव ( एनोड ) तथा जस्ते का बेलनाकार पात्र ऋण ध्रुव ( कैथोड ) तथा अमोनियम क्लोराइड और जिंक क्लोराइड की लेई विद्युत अपघट्य की भांति कार्य करते हैं । इसमें कार्बन की छड़ के ऊपरी सिरे पर एक पीतल को टोपी लगी होती है । जब संयोजी तार द्वारा शुष्क सेल को परिपथ में जोड़ा जाता है तो विद्युत अपघट्य अमोनियम क्लोराइड में क्लोराइड आयन ( Cl - ) जस्ते के बेलनाकार पात्र पर तथा अमोनियम आयन ( NH 4 +

विद्युत रासायनिक सेल (vidyut rasaynik cell)

Image
विद्युत रासायनिक सेल आप सभी ने टार्च में लगे छोटे बल्ब से उत्पन्न प्रकाश को देखा है । टार्च में लगा बल्ब , टार्च के अंदर लगे सेल से प्राप्त ऊर्जा के कारण रोशनी देने लगता है । अब प्रश्न उठता है कि सेल को ऊर्जा कहाँ से प्राप्त होती है ? सेल को ऊर्जा , सेल में भरे रासायनिक पदार्थों से प्राप्त होती है । अत : विद्युत सेल वह युक्ति है जिसके द्वारा रासायनिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदलते हैं । आईये , अब हम सन् 1800 में बने वोल्टाइक सेल के बारे में जानें । इस सेल में एक कांच के पात्र में तनु सल्फ्यूरिक अम्ल लेकर उसमें तांबे एवं जस्ते की छड़ों को रखते हैं तथा संयोजी तार द्वारा इन छड़ों का संबंध चित्र की भांति टार्च के बल्ब से करते हैं , तो बल्ब प्रकाशित हो जाता है । इस सेल की सर्वप्रथम खोज वोल्टा नामक वैज्ञानिक ने की थी । इसलिए इस सेल का नाम उन्हीं के नाम पर वोल्टाईक सेल पड़ा । इस सेल को साधारण वोल्टीय सेल भी कहते हैं वोल्टाइक सेल में जब तांबे व जस्ते की छड़ों या प्रोटों को कुछ दूरी पर सल्फ्यूरिक अम्ल में रखा जाता है तो सल्फ्यूरिक अम्ल से रासायनिक क्रिया के कारण तांबे को छह पनाव

फैराडे के विद्युत अपघटन के नियम (phairade ke vidyut apghatan ke niyam)

Image
फैराडे के विद्युत अपघटन के नियम सन् 1853 में इंग्लैंड के वैज्ञानिक माइकल फैराडे ने विद्युत अपघटन की क्रिया का अध्ययन करके दो नियमों का प्रतिपादन किया , जिन्हें फैराडे के विद्युत अपघटन के नियम कहते हैं । प्रथम नियमः -   विद्युत अपघटन की क्रिया में किसी इलेक्ट्रोड पर मुक्त ( जमा ) हुए पदार्थ का द्रव्यमान ( m ) उसमें प्रवाहित आवेश की मात्रा के समानुपाती होता है । अर्थात् m ∝ Q द्वितीय नियम : - यदि विभिन्न विद्युत अपघट्यों में समान प्रबलता को विद्युत धारा समान समय तक प्रवाहित की जाए तो इलेक्ट्रोडों पर जमा हुए पदार्थों के द्रवामान उनके विद्युत रासायनिक तुल्यांक ( E ) के समानुपाती होते है । अर्थात m ∝ E विद्युत के रासायनिक तुल्यांक का मान परमाणु भार और संयोजकता के अनुपात के बराबर होता है उदाहरण के लिए : कॉपर सल्फेट के विलयन व सिल्वर नाइट्रेट के विलयन में । एम्पियर की धारा । समय तक प्रवाहित करने पर , विद्युत अपघट्य Cuso , के इलेक्ट्रोड पर m , द्रव्यमान तांबा तथा विद्युत अपघट्य AgNO , के इलेक्ट्रोड पर m , द्रव्यमान चांदी जमा होती है तब इस नियमानुसार M 1 M 2 =

विद्युत धारा ( vidyut dhara )

Image
विद्युत धारा ( Current Electricity ) घरों में बल्ब या ट्यूब लाइट जलाने के लिये स्विच ऑन ( बटन चालू ) करते हैं । इसी प्रकार टार्च को जलाने के लिये भी स्विच ऑन करना पड़ता है । स्विच ऑन करने से विद्युत बल्ब या टार्च का बल्ब क्यों प्रकाश देने लगता है ? आइए इसे जानने के लिए एक क्रियाकल्प करें । एक टार्च का सेल, टार्च का बल्य, चालक तार के टुकड़े तथा कुंजी या इलेक्ट्रिक स्विच लेकर इन्हें चित्र के अनुसार जोड़े । टॉर्च के सेल के एक सिरे पर + चिन्ह तथा दूसरे पर - चिन्ह लगा होता है । सेल में ' + ' चिन्ह वाले सिरे का विभव, ' - ' चिन्ह वाले सिरे के विभव से अधिक होता है । सेल के सिरों के मध्य इस विभवांतर ( विद्युत वाहक बल ) के कारण चालक तार में लगी कुंजी को चालू करते ही आवेश प्रवाहित होने लगता है तथा टार्च का बल्ब जलने लगता है । इस समय कहा जाता है कि बल्ब में विद्युत धारा प्रवाहित होने से बल्ब प्रकाश देने लगता है चालक तार में लगी कुंजी को खोल देने ( स्विच ऑफ ) पर तार में आवेश प्रवाह का मार्ग टूट जाता है तथा टार्च का बल्ब बुझ जाता है । इस समय कहा जाता है कि बल्य में विद

सूक्ष्मदर्शी ( sukchhm darshi Microscope )

Image
सूक्ष्मदर्शी ( Microscope ) वह यंत्र जो सूक्ष्म वस्तु का बड़ा एवं स्पष्ट प्रतिबिम्ब बनाता है , सूक्ष्मदर्शी कहलाता है । हम पढ़ चुके हैं कि जब एक उत्तल लेंस के सामने वस्तु फोकस और प्रकाश केन्द्र के बीच रखी जाती है तब उसका प्रतिबिम्ब बड़ा , आभासी व सीधा बनता है । लेकिन उत्तल लेंस की सहायता से एक सीमा से अधिक आवर्धन प्राप्त नहीं किया जा सकता है । अत : जब हमें अति सूक्ष्म वस्तुओं को स्पष्ट देखना होता है , तब हम दो लेंसों के संयोग का प्रयोग कर आवर्धन को बढ़ा लेते हैं । इस तरह हम दो प्रकार के सूक्ष्मदर्शी का प्रयोगशाला में उपयोग करते हैं : सरल सूक्ष्मदर्शी व संयुक्त सूक्ष्मदर्शी । 1. सरल सूक्ष्मदर्शी - सरल सूक्ष्मदर्शी एक कम फोकस दूरी का उत्तल लेंस होता है जिसे एक हैण्डिल लगे वृत्ताकार फ्रेम में लगा दिया जाता है । सिद्धांत : किसी वस्तु को उत्तल लेंस के प्रकाश केन्द्र व फोकस के बीच रखने से उसका आभासी , सीधा व बड़ा प्रतिबिम्ब वस्तु की ओर बन जाता है , यहाँ उत्तल लेंस , आवर्धक की भाँति कार्य करता है । 2. संयुक्त सूक्ष्मदर्शी - दो लेंसो के सहयोग द्वारा आवर्धन प्राप्त करने की युक्ति, ज

रेगिस्तान की मरीचिका (registan ki marichika )

Image
रेगिस्तान की मरीचिका कभी कभी हमें रेगिस्तान में वृक्ष का उल्टा प्रतिविम्ब दिखायी देता है, जिससे वहाँ पर जलाशय होने का भ्रम होता है, इस प्रक्रिया को रेगिस्तान की मरीचिका कहते है । दिन के समय रेगिस्तान की रेतीली जमीन अत्यधिक गर्म हो जाती है जिससे जमीन के निकट की वायु गर्म होकर विरल हो जाती है जबकि ऊपरी परतों की वायु अपेक्षाकृत ठण्डी रहती है । अर्थात्, ऊपरी वायु का घनत्व नीचे की वायु के घनत्व की अपेक्षा अधिक हो जाता है । इस प्रकार रेतीले तल की वायु का घनत्व कम तथा जैसे - जैसे ऊपर की और बढ़ते जाते हैं तो घनत्व बढ़ता जाता है अर्थात् माध्यम सपन होता जाता है । जब किसी वृक्ष की चोटी से आने वाली प्रकाश की किरण ऊपर के सघन माध्यम से नीचे के विरल माध्यम में प्रवेश करती है तो यह अभिलम्ब से दूर हटती है । इस तरह विभिन्न परतों से गुजरते हुए किसी परत तक आते - आते आपतित प्रकाश का आपतन कोण, क्रान्तिक कोण से अधिक हो जाता है, जिससे इसका पूर्ण आन्तरिक परावर्तन हो जाता है । पूर्ण आंतरिक परावर्तन के कारण प्रकाश किरणें नीचे की गर्म वायु से ऊपर की ओर अर्थात् तुलनात्मक रूप से ठण्डी वायु में प्रवेश करती

प्रकाश का अपवर्तन ( prakash ka apvartan)

Image
प्रकाश का अपवर्तन ( Refraction of Light ) सामान्यतः किसी माध्यम में प्रकाश स्रोत से निकलने वाला प्रकाश जब किसी सतह पर आपतित होता है तो : ( a ) इस प्रकाश का कुछ भाग सतह से टकराकर ( परावर्तित होकर ) पुन : उसी माध्यम में लौट आता है । तथा ( b ) प्रकाश का कुछ भाग दूसरे माध्यम में संचरित ( Propagate ) हो जाता है । अतः जब प्रकाश की कोई किरण किसी एक पारदर्शी माध्यम से दूसरे पारदर्शी माध्यम में जाती है तो माध्यम बदलते समय वह अपने मार्ग से विचलित हो जाती है । प्रकाश के व्यवहार से जुड़ी इस घटना को प्रकाश का अपवर्तन कहते हैं । जब प्रकाश की किरण विरल माध्यम से सघन माध्यम में प्रवेश करती है तो वह अभिलम्ब की ओर झुक जाती है । लेकिन जब सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करती है , तो अभिलम्ब से दूर हट जाती है । चित्र में AB दो माध्यमों का सीमा पृष्ठ है , PO आपतित किरण है । ∠ NOP = आपतन कोण ∠ i है तथा ∠ MOQ = अपवर्तन ∠ r है । चित्र से स्पष्ट है कि जब प्रकाश की किरण विरल माध्यम से सपन माध्यम में जाती है तो अपवर्तन ∠ r  आपतन कोण । से छोटा होता है तथा जब प्रकाश किरण सधन माध्यम से व