नाभिकीय ऊर्जा (nabhikeey urja)


नाभिकीय ऊर्जा

नाभिकीय ऊर्जा से विद्युत का उत्पादन करने में कार्बन डाईऑक्साइड गैस नहीं निकलती है । अत : नाभिकीय ऊर्जा के उपयोग से वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा नही बढ़ती है । कुछ परमाणुओं के नाभिक में अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा संचित रहती है जिसे नाभिकीय ऊर्जा कहते हैं । यह ऊर्जा निम्न दो अभिक्रियाओं में मुक्त होती है
( 1 ) नाभिकीय संलयन
( 2 ) नाभिकीय विखण्डन नाभिकीय संलयन जब दो हल्के नाभिक परस्पर संयुक्त होकर एक भारी नाभिक बनाते हैं तो इस प्रक्रिया को नाभिकीय संलयन कहते हैं । इस प्रक्रिया में द्रव्यमान की क्षति होती है जो ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है ।

उदा. - भारी हाइड्रोजन अर्थात् ईयूटीरियम के नाभिकों के संलयन से हीलियम नाभिक प्राप्त होता है । इस संलयन अभिक्रिया को निम्न समीकरणों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है ।

पहले ड्यूटीरियम के दो नाभिक संलयित होकर ट्राइटियम तथा प्रोटोन बनाते हैं
1H2 + 1H2 1H3 + 1H1 + 4MeV
( रपूटोरियम ) ( इयूटोरियम ) ( ट्राइटियम )
( प्रोट्रॉन
He +17.6 Mev ( हाइटियम ) ( इयूटोरियम ) ( हीलियम ) ( न्यूट्रॉन )
इस तरह इस अभिक्रिया में कुल 21.6 Mev ( मिलियन इलेक्ट्रॉन वोल्ट ) ऊर्जा मुक्त होती है ।
नाभिकीय संलयन एक कठिन प्रक्रिया है । यह साधारण ताप व दाब पर सम्भव नहीं है । इसका कारण यह है कि

जब संलयन में भाग लेने वाले धनावेशित नाभिक एक दूसरे के बहुत निकट आते हैं , तो इनके बीच प्रबल विद्युत प्रतिकर्षण बल लगने लगता है । इस बल के विरुद्ध संलयित होने के लिए नाभिकों की गतिज ऊर्जा बहुत अधिक होनी चाहिए । इसके लिए अति उच्च ताप व अति उच्च दाब की आवश्यकता होती है । ताप तथा दाब की ये दशायें पृथ्वी पर प्राकृतिक रूप से उपलब्ध नहीं है । नाभिकीय संलयन के लिए आवश्यक उच्चताप व उच्च दाव तारों , तथा सूर्य , में पाया जाता है इसलिए सूर्य में नाभिकीय संलयन की अभिक्रिया द्वारा अत्यधिक ऊर्जा विमुक्त होती है ।