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महादेवी वर्मा का जीवन परिचय Mahadevi Varma ka Jeevan Parichay

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महादेवी वर्मा का जीवन परिचय संक्षिप्त परिचय- छायावाद की चतुर्थ स्तम्भ के रूप में प्रसिद्ध महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च, 1907 को फर्रुखाबाद (उ.प्र.) में हुआ था। इन्होंने आरम्भिक शिक्षा घर पर ही ग्रहण की। वर्ष 1920 में प्रयाग से प्रथम श्रेणी में मिडिल उत्तीर्ण किया। सन् 1933 में प्रयाग विश्व विद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया। महादेवी जी ने प्रारम्भिक कविताएँ बृजभाषा में लिखी बाद में उन्होंने खड़ी बोली में काव्य सृजन किया। महादेवी वर्मा कवि के साथ-साथ कहानीकार, उपन्यासकार, रेखाचित्र संस्मरण आदि में भी उनकी साहित्यिक प्रतिभा को देखा जा सकता है। उनका कलाकार हृदय कवि होने के साथ-साथ चित्रकार भी था इसलिए उनकी कविताओं में चित्रों जैसी संरचना का आभास मिलता है। इनके काव्य संग्रह नीहार- 1930, रश्मि- 1932, नीरजा 1934 और सांध्यगीत- 1936 दीपशिखा 1942, सप्तपर्णा (अनुदित 1959 ) प्रथम आयाम 1974 आदि अन्य महत्वपूर्ण काव्य रचनाएँ हैं। अतीत के चलचित्र स्मृति की रेखाएँ और श्रृंखला की कड़ियाँ महत्वपूर्ण रेखाचित्र हैं। पथ के साथी, मेरा परिवार स्मृति चित्र आदि महत्वपूर्ण संस्मरण के अलावा निबंध संग्रह ...

भक्तिकाल : पृष्ठभूमि एवं प्रमुख कवि bhaktikal prasthbhoomi evam pramukh kavi

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भक्तिकाल : पृष्ठभूमि एवं प्रमुख कवि हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल भारतीय ज्ञान संपदा के संरक्षण और अपनी अस्मिता को बनाए रखने के लिए किए गए संघर्ष के लिए रेखांकनीय है। इस्लाम के प्रचार-प्रसार हेतु किए जा रहे सशस्त्र आक्रमणकारी विदेशी जब भारतवर्ष की राजशक्तियों को दमित कर सांस्कृतिक मानमूल्यों पर प्रचंड प्रहार कर रहे थे, तब समाज के मध्य से साधु-संतों ने समाज का नेतृत्व करने के लिए अपनी काव्यमयी वाणी का सदुपयोग किया। निर्गुण काव्य के रूप में आस्थामूल्क ईश्वरभक्ति समाज का दृढ़ कवच बनी तो सगुण-काव्य के केंद्र राम और कृष्ण की असुर संहारक छवि ने समाज को आक्रामक शक्तियों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष की प्रेरणा दी। अनेक संतों ने रणक्षेत्रों में उतरकर प्रत्यक्ष संघर्ष भी किया किन्तु हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों-समीक्षकों ने भक्तिकाव्य के इस पक्ष की उपेक्षा की है और भक्तिकाल को हताश निराश समाज की भावाभिव्यक्ति के रूप में अंकित कर भ्रांतियाँ निर्मित की हैं। भक्ति-काव्य में आस्तिकता का प्रकाश, मानव मूल्यों की संचेतना और भारतीय शौर्य की संदीप्ति एक साथ प्रकट हुई है। युवा पीढ़ी को भक्ति...

गोरखनाथ कसा जीवन परिचय gorakhnath ka jeevan parichay

गोरखनाथ कसा जीवन परिचय नाथ-साहित्य के प्रारंभकर्ताओं में गोरखनाथ प्रमुख हैं। अनेक इतिहास- ग्रंथों में उन्हें गोरक्षनाथ भी कहा गया है। वस्तुतः नाथपंथ का साहित्य आदिकाल में हिन्दी भाषा के प्रादुर्भाव के साथ-साथ विकसित हुआ है। 'गोरक्ष सिद्धांत-संग्रह' में नाथ संप्रदाय के पंथ-प्रवर्तकों के नाम इस प्रकार गिनाए गए हैं- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पट, जलंधर, और मलयार्जुन। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी 'नवनाथ' मान्य किये हैं। उपर्युक्त नाथ- अनुक्रमणिका में गोरखनाथ का क्रम छठा है। इस दृष्टि से उनका समय आदिकाल के मध्य में मान्य किया जाना युक्तियुक्त है। गोरखनाथ के गुरु का नाम मत्स्येंद्रनाथ था। हिन्दी और संस्कृत में गोरक्षनाथ के नाम से रचित अनेक रचनाएँ उपलब्ध हैं किंतु उनमें से अधिकांश की प्रमाणिकता संदिग्ध है। डॉ. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से प्रकाशित 'गोरखवानी' में उनकी शब्द, पद आदि चालीस पुस्तकों को प्रस्तुत किया। उनके अनुसार 'सबदी' गोरखनाथ की सबसे अधिक प्रामाणिक रचना है। आचार्य रामचंद्र श...

चंदबरदायी का जीवन परिचय chandrabardai ka jeevan parichay

चंदबरदायी का जीवन परिचय आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार चंदबरदायी का समय संवत् 1225 से 1249 विक्रमाब्द ठहरता है। चंदबरदायी की ख्याति दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट महाराज पृथ्वीराज चौहान के सखा, सामंत और राजकवि के रूप में सर्वत्र स्वीकृत है। ‘पृथ्वीराज रासो' इनकी एकमात्र प्रख्यात प्रबंधकाव्य कृति है। इनके पूर्वज पंजाब के निवासी थे और इनका जन्म लाहौर में हुआ था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ये षड्भाषा, व्याकरण, काव्य-साहित्य, छंदशास्त्र, ज्योतिष, पुराण, नाटक आदि अनेक विधाओं में पारंगत थे। इन्हें जालंधरी देवी का इष्ट था जिनकी कृपा से ये अदृष्ट काव्य भी कर सकते थे। इनका जीवन पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिलाजुला था कि अलग नहीं किया जा सकता। युद्ध में, आखेट में, सभा में, यात्रा में सदा महाराज के साथ रहते थे और जहाँ जो बातें होती थीं, सब में सम्मिलित रहते थे। इससे महाराज पृथ्वीराज और महाकवि चंदबरदायी के अंतरंग आत्मीय संबंधों का ज्ञान होता है । 'पृथ्वीराज रासो' ढाई हजार पृष्ठों का एक बृहतकाय ग्रंथ है। इस ग्रंथ की कथावस्तु 69 समय (सर्गों) में विभक्त है। महाराज पृथ्वीराज...

भारतेन्दु युगीन काव्य की विशेषताएं (bhartendu yug ki kavya ki visheshta)

भारतेन्दु युगीन काव्य की विशेषताएं भारतेंदु युग की विशेषताएं इस प्रकार है- 1. राष्ट्रीयता की भावना - भारतेंदु युग के कवियों ने देश-प्रेम की रचनाओं के माध्यम से जन-मानस मे राष्ट्रीय भावना का बीजारोपण किया । 2. सामाजिक चेतना का विकास - भारतेंदु युग काव्य सामाजिक चेतना का काव्य है। इस युग के कवियों ने समाज मे व्याप्त अंधविश्वासों एवं सामाजिक रूढ़ियों को दूर करने हेतु कविताएँ लिखीं । 3. हास्य व्यंग्य - हास्य व्यंग्य शैली को माध्यम बनाकर पश्चिमी सभ्यता, विदेशी शासन तथा सामाजिक अंधविश्वासों पर करारे व्यंग प्रहार किए गए । 4. अंग्रेजी शिक्षा का विरोध - भारतेंदु युगीन कवियों ने अंग्रेजी भाषा तथा अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के प्रति अपना विरोध कविताओं मे प्रकट किया है । 5. विभिन्न काव्य रूपों का प्रयोग - इस काल मे काव्य के विविध रूप दिखाई देते है जैसे - मुक्तक-काव्य, प्रबंध-काव्य आदि । 6. काव्यानुवाद की परम्परा - मौलिक लेखन के साथ-साथ संस्कृत तथा अंग्रेजी से काव्यानुवाद भी हुआ है । Next Page

भारतेन्दुयुगीन कविता की मुख्य विशेषताएँ 2(bhartendu yug ki kavita ki mukhya visheshta 2)

Page 2 प्रेम-वर्णन- सखी ये नैना बहुत बुरे । तब सों भये पराये, हरि सों जब सों जाइ जुरे । मोहन के रस बस ह्वै डोलत तलफत तनिक बुरे॥ कलात्मकता का अभाव भारतेन्दुयुगीन कविता की चौथी मुख्य प्रवृत्ति है- कलात्मकता का अभाव । नवयुग की अभिव्यक्ति करने वाली यह कविता कलात्मक न हो सकी । जिसके कारण ये हैं- (1) इस काल में विचारों का संक्रांति काल था, जिसके कारण में इसमें कलात्मकता का अभाव रहा । (2) इस युग में कवि समाचार-पत्रों द्वारा अपनी कविता का प्रचार करते थे, इसलिए उन्हें इसे काव्यपूर्ण बनाने की चिंता नहीं थी । (3) भाषा का अस्तित्व और नागरी आंदोलन के कारण भी कविता कलात्मकता धारण न कर सकी । क्योंकि इस आंदोलन के लिए कवियों को जनमत जागरित करना था जो कि जनवाणी से ही संभव था । कहने का मतलब यह है कि इस युग के कवि तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवम् भाषा संबंधी समस्याओं में इतने व्यस्त थे कि वे नवयुग की चेतना को कलात्मक एवम् प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त न कर सके और उसमें सर्वत्र यथार्थ की अनुभूति की सच्चाई सरल भाषा-शैली में अभिव्यक्त हुई । जैसे, खंडन-मंडन की...

नीरू और नीमा (Niru aur nima)

नीरू और नीमा की कहानी नीरू-नीमा जुलाहे दम्पत्ति थे। वे निःसंतान थे। नीरू और नीमा ब्राह्मण दम्पत्ति थे जिनका मुसलमानों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया था। नीरू का नाम गौरीशंकर था एवं नीमा का नाम सरस्वती था। गौरी शंकर ब्राह्मण भगवान शिव का उपासक था तथा शिव पुराण की कथा करके भगवान शिव की महिमा का गुणगान किया करता था। गौरी शंकर निर्लोभी था। कथा करने से जो धन प्राप्त होता था, उसे धर्म में ही लगाया करता था। जो व्यक्ति कथा कराते थे तथा सुनते थे, सर्व गौरी शंकर ब्राह्मण के त्याग की प्रशंसा करते थे। जिस कारण से पूरी काशी में गौरी शंकर की प्रसिद्धि हो रही थी। अन्य स्वार्थी ब्राह्मणों का कथा करके धन इकत्रित करने का धंधा बन्द हो गया। इस कारण से वे ब्राह्मण उस गौरी शंकर ब्राह्मण से ईर्ष्या रखते थे। इस बात का पता मुसलमानों को लगा कि एक गौरी शंकर ब्राह्मण काशी में हिन्दू धर्म के प्रचार को जोर-शोर से कर रहा है। इसको किस तरह बन्द करें। मुसलमानों को पता चला कि काशी के सर्व ब्राह्मण गौरी शंकर से ईर्ष्या रखते हैं। इस बात का लाभ मुसलमानों ने उनका धर्म परिवर्तन करके उठाया। पुरूष का नाम नूरअली...

बूढी काकी 2 (Budhi Kaki kahani 2)

Page 2 वह उकड़ूँ बैठकर सरकते हुए आंगन में आईं । परन्तु हाय दुर्भाग्य! अभिलाषा ने अपने पुराने स्वभाव के अनुसार समय की मिथ्या कल्पना की थी । मेहमान-मंडली अभी बैठी हुई थी । कोई खाकर उंगलियाँ चाटता था, कोई तिरछे नेत्रों से देखता था कि और लोग अभी खा रहे हैं या नहीं । कोई इस चिंता में था कि पत्तल पर पूड़ियाँ छूटी जाती हैं किसी तरह इन्हें भीतर रख लेता । कोई दही खाकर चटकारता था, परन्तु दूसरा दोना मांगते संकोच करता था कि इतने में बूढ़ी काकी रेंगती हुई उनके बीच में आ पहुँची । कई आदमी चौंककर उठ खड़े हुए । पुकारने लगे-- अरे, यह बुढ़िया कौन है? यहाँ कहाँ से आ गई? देखो, किसी को छू न दे । पंडित बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला गए । पूड़ियों का थाल लिए खड़े थे । थाल को ज़मीन पर पटक दिया और जिस प्रकार निर्दयी महाजन अपने किसी बेइमान और भगोड़े कर्ज़दार को देखते ही उसका टेंटुआ पकड़ लेता है उसी तरह लपक कर उन्होंने काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अंधेरी कोठरी में धम से पटक दिया । आशारूपी वटिका लू के एक झोंके में विनष्ट हो गई । मेहमानों ने भोजन किया । घरवालों ने भ...

महाभोज उपन्यास का सारांश (mahabhoj upanyas ka saransh)

महाभोज उपन्यास का कथासार मन्नू भंडारी का महाभोज उपन्यास इस धारणा को तोड़ता है कि महिलाएं या तो घर-परिवार के बारे में लिखती हैं, या अपनी भावनाओं की दुनिया में ही जीती-मरती हैं । महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है । जनतंत्र में साधारण जन की जगह कहाँ है ? राजनीति और नौकरशाही के सूत्रधारों ने सारे ताने-बाने को इस तरह उलझा दिया है कि वह जनता को फांसने और घोटने का जाल बनकर रह गया है । इस जाल की हर कड़ी महाभोज के दा साहब की उँगलियों के इशारों पर सिमटती और कहती है । हर सूत्र के वे कुशल संचालक हैं । उनकी सरपरस्ती में राजनीति के खोटे सिक्के समाज चला रहे हैं । खरे सिक्के एक तरफ फेंक दिए गए हैं । महाभोज एक ओर तंत्र के शिकंजे की तो दूसरी ओर जन की नियति के द्वन्द की दारुण कथा है । अनेक देशी-विदेशी भाषाओँ में इस महत्त्पूर्ण उपन्यास के अनुवाद हुए हैं और महाभोज नाटक तो दर्जनों भाषाओँ में सैकड़ों बार मानचित होता रहा है । ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा (दिल्ली), द्वारा मानचित महाभोज नाटक राष्ट्रीय नाट्य-मंडल की गौरवशाली प्रस्तुतियों में अविस्मर्णीय है । हिंदी के सजग पाठक के लिए अनिवार्य उपन्यास है म...

रामकृष्ण मिशन (ramkrishn mission)

रामकृष्ण मिशन मानवता के महानपुत्र रामकृष्ण परमहंस न केवल बंगाल के अपितु सारे विश्व में अपने कार्यों और सिद्धांतों के लिये एक मिशन बन चुके हैं । उनके परम शिष्य नरेन्द्र नाथ ने जो बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए, अपने गुरु की कर्म स्थली बारानगर में 1887 ई. को रामकृष्ण मठ की स्थापना की । 1899 ई. में एक और मठ कलकत्ता के निकट वेल्लौर में स्थापित किया गया । जहाँ से स्वामी विवेकानंद की मृत्यु 1909 ई. के बाद रामकृष्ण मिशन नामक एक संगठन के रूप में दोनों महाप्रभुओं के सिद्धांतों के प्रचार - प्रसार के लिये स्थापित किया गया । रामकृष्ण मिशन का मुख्य कार्य समाज सेवा है । यद्यपि रामकृष्ण और विवेकानंद का उद्देश्य धर्म की स्थापना नहीं थी अपितु उन्होंने तो आध्यात्मवाद के माध्यम से सभी धर्मों में एकता और विश्वास जाग्रत कर रहा था । उनकी स्पष्ट मान्यता थी, कि मानव सेवा से ही एक व्यक्ति ईश्वर को प्राप्त कर सकता है । हिन्दू धर्म में जहाँ श्री राम इसके आदर्श हैं, तो ईसाई और मुस्लिम धर्मों में क्रमश : ईसा मसीह और पैगम्बर मुहम्मद मानव सेवा का नादर्श उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । उनका ...

सरकारी टेलीविजन के सामाजिक उद्देश्य (sarkari television ke samajik uddeshya)

सरकारी टेलीविजन के सामाजिक उद्देश्य भारत में सरकारी टेलीविजन के सामाजिक उद्देश्य निम्नलिखित हैं ( 1 ) सामाजिक परिवर्तन के उत्प्रेरक अर्थात् सामाजिक परिवर्तनों की गति में वृद्धि करने के एक कारक के रूप में कार्य करना । ( 2 ) जनसंख्या नियंत्रण और परिवार कल्याण के माध्यम के रूप में परिवार नियोजन का संदेश प्रसारित करना । ( 3 ) लोगों के एक वैज्ञानिक सोच विकसित करना । ( 4 ) राष्ट्रीय अखण्डता को बढ़ावा देना । ( 5 ) खेल और क्रीड़ाओं में रूचि विकसित करना । ( 6 ) महिलाओं , बच्चों और अन्य सुविधा - विहीन लोगों के कल्याण सहित सामाजिक कल्याण उपायों की आवश्यकता को जन - जन तक पहुँचाना । ( 7 ) पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिकीय संतुलन को बढ़ावा देना । " ( 8 ) कला और सांस्कृतिक विरासत के मूल्यांकन हेतु उचित मूल्य विकसित करना ।

पत्रकारिता के विभिन्न प्रकारों पर एक निबंध (patrakarita ke vibhinna prakaro par ek nibandh)

पत्रकारिता के विभिन्न प्रकारों पर एक निबंध वर्तमान में पत्रकारिता का क्षेत्र असीमित हो गया है । आज मानव की जिज्ञासा का एक भी बिन्दु या क्षेत्र पत्रकारिता के प्रभाव या आभा से अछूता नहीं है । यहाँ तक कि मानव, पशु, पक्षी, जीव - जन्तु सभी के व्यक्तिगत जीवन में भी अनाधिकार पूर्ण दखलन्दाजी पत्रकारिता के नाम पर हो रही है । आज पत्रकार अपनी रुचि एवं प्रवृत्ति के अनुसार विशिष्ट क्षेत्रों का चयन कर अपनी कलम चला रहे हैं । इन क्षेत्रों का संक्षेप में विवरण निम्नानुसार है - ( 1 ) अन्वेषी या खोजी पत्रकारिता- किसी समाचार को साक्ष्य एवं तथ्यपूर्ण बनाने के लिये जब पत्रकार अपने स्वयं के बल पर इन जानकारियों को खोज निकालता है, जो जानकारियाँ सामान्य जन के संज्ञान में नहीं होतीं लेकिन सार्वजनिक महत्व की होती हैं, वह सब अन्वेषण या खोजी पत्रकारिता का अंग मानी जाती हैं । वर्तमान में ' पीत ' पत्रकारिता के रूप में यह क्षेत्र बदनाम हो चुका है । कई समाचारों को अगर काल्पनिक प्रसंगों, अफवाहों, अप्रमाणित तथ्यों के आधार पर प्रकाशित कर दिया जाये तो वह पत्रकारिता की तौहीन है । ऐसे हालातों में पत्र...

खोजी पत्रकारिता क्या है (khoji patrakarita kya hai)

खोजी पत्रकारिता क्या है किसी समाचार को साक्ष्य एवं तथ्यपूर्ण बनाने के लिये जब पत्रकार अपने स्वयं के बल पर इन जानकारियों को खोज निकालता है, जो जानकारियाँ सामान्य जन के संज्ञान में नहीं होतीं लेकिन सार्वजनिक महत्व की होती हैं, वह खोजी पत्रकारिता कहलाती हैं । खोजी पत्रकारिता का आरंभ अमेरिका से माना गया है तथा जोसेफ पुलित्जर ( जो कि न्यूयार्क वर्ल्ड के सम्पादक थे ) को इसका जनक समझा जाता है । पत्रकारिता की यह महत्वपूर्ण विधा विश्व के प्रायः सभी देशों में खूब फल - फूल रही हैं । भारत में भी खोजी पत्रकारिता की दिशा में कई उल्लेखीय कार्य हुए है । इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार अरुण शौरी द्वारा ' बोफोर्स काण्ड ' का उद्घाटन और ' तहलका डॉट काम ' ( रक्षा सौदों से संबंधित ) के रहस्योद्घाटन सभी की स्मृति में होंगे । भारत में खोजी पत्रकारिता का प्रारंभ ' जुगवाणी ' नामक पत्रिका से हुआ था जिसे देवव्रत नामक युवक ने प्रारंभ किया था । सरकारी तंत्र के विरूद्ध उन्होंने खोजी पत्रकारों को अपना साथी बनाया । कालान्तर में ' जुगान्तर ' नामक अखबार ने दमन और अत्याचार के विरूद्ध ख...

ई - मेल क्या है (email kya hai)

ई - मेल क्या है ई - मेल , संदेश सम्प्रेषण की एक ऐसी विधि है , जिसमें प्रेषक व प्राप्तकर्ता कम्प्यूटर तथा इन्टरनेट कनेक्शन के माध्यम से सम्बन्ध स्थापित करते हैं । तकनीकी रूप से ई मेल एक कम्प्यूटर से दूसरे कम्प्यूटर तक डाक्यूमेन्टों को इलेक्ट्रॉनिक रूप से प्रेषित करने को कहा जाता है । इस प्रकार ई - मेल इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन सिस्टम संचार साधन के माध्यम से कम्पोजिंग करने , संग्रहित करने तथा प्राप्त करने की विधि है । E-mail is such a method of message transmission, in which the sender and the recipient establish a relationship through a computer and internet connection. Technically, e-mail is said to transmit documents electronically from one computer to another. Thus e-mail is the method of composing, storing and receiving through electronic communication system communication means.

प्रिन्ट मीडिया (print media)

प्रिन्ट मीडिया प्रिन्ट मीडिया - इसके अन्तर्गत समाचार पत्र, पत्रि गएँ, पुस्तकें, लघु पुस्तकें आदि आते हैं । मुद्रण प्रणाली के आविष्कार से पूर्व कृति को हाथ से लिखकर सुरक्षित रखा जाता था । जितनी प्रतियों की आवश्यकता होती थी, उतनी ही बार उन्हें लिखना पड़ता था । इस कार्य में काफी समय और श्रम लगता था । कागज के आविष्कार से पूर्व भारत में ग्रंथों को भोजपत्रों पर लिखा जाता था । मुद्रण ने प्रतियाँ बनाने की इस प्रक्रिया को पूर्णतः बदल दिया । सीसे के बने अक्षरों को जोड़कर और फरमों में बाँधकर छपाई की मशीन में फिटकर अक्षरों पर गाढ़ी स्याही लगाकर मशीन द्वारा कागज पर दबाव दिया जाता था जिससे कागज पर अक्षर छप जाते थे । इसी प्रकार सैकड़ों प्रतियाँ कुछ घण्टों में मुद्रित हो जाती थीं । यह मुद्रण की पुरानी विधि थी । अब इसमें बड़ा भारी परिवर्तन आ चुका है । ऑफसेट, फोटोकंपोजिंग और लेजर प्रिंटिंग ने मुद्रण के क्षेत्र में गुणात्मक परिवर्तन ला दिया है । मुद्रण के कारण समाचार पत्रों का प्रकाशन आरंभ हुआ । समाचार पत्र को प्रिंटिंग प्रेस में छापा जाने लगा और हॉकरों द्वारा वे पाठकों तक पहुँचने लगे । इस प...

बघेली लोक साहित्य (bagheli lok sahitya)

बघेली लोक साहित्य बघेली लोक साहित्य की दृष्टि से सिंगरोली, उमरिया, अनूपपुर, रीवा, सतना, शहडोल तथा सीधी जिले आते हैं । बघेली लोक साहित्यकारों में बैजनाथ पाण्डे, शंभू काका, कालिका प्रसाद त्रिपाठी, बाबूलाल दाहिया, चण्डी प्रसाद चण्ड, अमोल बटोरोही प्रमुख हैं । बघेली लोक साहित्य को निम्नलिखित पाँच भागों में बाँट सकते हैं । ( अ ) लोकगीत, ( ब ) लोकगाथा, ( स ) लोककथा, ( द ) लोकनाट्य, ( इ ) लोक सुभाषित / प्रकीर्ण साहित्य ( अ ) बघेली लोकगीत - बघेली लोकगीतों में जहाँ बघेलखण्ड के पारम्परिक रीति - रिवाज का वैभव प्रसारित है, वहीं बघेलखण्ड की लोक - संस्कृति भी दृष्टिगोचर होती है । लोकगीतों में जितनी लोक राग की विविधता और विषयों की विभिन्नता मिलती है, उतनी किसी अन्य लोक साहित्य में नहीं । गोमती प्रसाद विकल ने ' बघेली संस्कृति और साहित्य ' पुस्तक में लोकगीतों का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया है । संस्कार गीत - जन्म गीत, सोहर गीत, प्रसव पूर्व के गीत, प्रसव बाद के गीत, अन्य भाव के गीत, मुण्डन गीत । यज्ञोपवीत में माटी मांगल्या, मंत्री पूजन, छिरा उतराई, रिसाई गीत एवं भीख गीत हैं ।...

बुंदेली लोक साहित्य (bundeli lok sahitya)

बुंदेली लोक साहित्य बुंदेली लोक साहित्य को निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है इत जमुना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टौंस । छत्रसाल सो लरन की, रही ना काहू हौस । उक्त दोहे में बुन्देलखण्ड की सीमा को गोरेलाल तिवारी ने इस प्रकार दिखाया है- ' भारत के मध्य भाग में नर्मदा के उत्तर और यमुना के दक्षिण में विंध्याचल पर्वत की शाखाओं के समाकीर्ण और यमुना की सहायक नदियों के जल से सिंचित सृष्टि - सौन्दर्य अलंकृत जो प्रदेश है, वही बुन्देलखण्ड है । बुन्देली लोक साहित्य की सीमा का विस्तार इन्हीं क्षेत्रों को ध्यान में रखकर देख सकते हैं । बुन्देली लोक साहित्य में ईसुरी ' कवि का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है । लोक कवि ईसुरी द्वारा रचित ' फाग ' अत्यधिक प्रचलित है । बुन्देली लोक साहित्य को पाँच प्रकार से विभक्त किया गया है 1. बुंदेली लोकगीत - लोकगीत जनजीवन की भावपूर्ण एवं लयबद्ध शाब्दिक अभिव्यक्ति है । बुंदेली लोकगीतों में जातीय विशेषतायें एवं आदिम परम्परायें दृष्टिगोचर होती हैं । इसमें संस्कृति और संस्कार के विविध चित्रों के साथ - साथ मनोरंजन के तत्व भी मिलते हैं । बुंदेली ...