बूढी काकी 2 (Budhi Kaki kahani 2)


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वह उकड़ूँ बैठकर सरकते हुए आंगन में आईं । परन्तु हाय दुर्भाग्य! अभिलाषा ने अपने पुराने स्वभाव के अनुसार समय की मिथ्या कल्पना की थी । मेहमान-मंडली अभी बैठी हुई थी । कोई खाकर उंगलियाँ चाटता था, कोई तिरछे नेत्रों से देखता था कि और लोग अभी खा रहे हैं या नहीं । कोई इस चिंता में था कि पत्तल पर पूड़ियाँ छूटी जाती हैं किसी तरह इन्हें भीतर रख लेता । कोई दही खाकर चटकारता था, परन्तु दूसरा दोना मांगते संकोच करता था कि इतने में बूढ़ी काकी रेंगती हुई उनके बीच में आ पहुँची । कई आदमी चौंककर उठ खड़े हुए । पुकारने लगे-- अरे, यह बुढ़िया कौन है? यहाँ कहाँ से आ गई? देखो, किसी को छू न दे ।

पंडित बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला गए । पूड़ियों का थाल लिए खड़े थे । थाल को ज़मीन पर पटक दिया और जिस प्रकार निर्दयी महाजन अपने किसी बेइमान और भगोड़े कर्ज़दार को देखते ही उसका टेंटुआ पकड़ लेता है उसी तरह लपक कर उन्होंने काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अंधेरी कोठरी में धम से पटक दिया । आशारूपी वटिका लू के एक झोंके में विनष्ट हो गई ।

मेहमानों ने भोजन किया । घरवालों ने भोजन किया । बाजे वाले, धोबी, चमार भी भोजन कर चुके, परन्तु बूढ़ी काकी को किसी ने न पूछा । बुद्धिराम और रूपा दोनों ही बूढ़ी काकी को उनकी निर्लज्जता के लिए दंड देने क निश्चय कर चुके थे । उनके बुढ़ापे पर, दीनता पर, हत्ज्ञान पर किसी को करुणा न आई थी । अकेली लाडली उनके लिए कुढ़ रही थी ।

लाडली को काकी से अत्यंत प्रेम था । बेचारी भोली लड़की थी । बाल-विनोद और चंचलता की उसमें गंध तक न थी । दोनों बार जब उसके माता-पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा तो लाडली का हृदय ऎंठकर रह गया । वह झुंझला रही थी कि हम लोग काकी को क्यों बहुत-सी पूड़ियाँ नहीं देते । क्या मेहमान सब-की-सब खा जाएंगे? और यदि काकी ने मेहमानों से पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जाएगा? वह काकी के पास जाकर उन्हें धैर्य देना चाहती थी, परन्तु माता के भय से न जाती थी । उसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ बिल्कुल न खाईं थीं । अपनी गुड़िया की पिटारी में बन्द कर रखी थीं । उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थी । उसका हृदय अधीर हो रहा था । बूढ़ी काकी मेरी बात सुनते ही उठ बैठेंगीं, पूड़ियाँ देखकर कैसी प्रसन्न होंगीं! मुझे खूब प्यार करेंगीं ।

रात को ग्यारह बज गए थे । रूपा आंगन में पड़ी सो रही थी । लाडली की आँखों में नींद न आती थी । काकी को पूड़ियाँ खिलाने की खुशी उसे सोने न देती थी । उसने गु़ड़ियों की पिटारी सामने रखी थी । जब विश्वास हो गया कि अम्मा सो रही हैं, तो वह चुपके से उठी और विचारने लगी, कैसे चलूँ । चारों ओर अंधेरा था । केवल चूल्हों में आग चमक रही थी और चूल्हों के पास एक कुत्ता लेटा हुआ था । लाडली की दृष्टि सामने वाले नीम पर गई । उसे मालूम हुआ कि उस पर हनुमान जी बैठे हुए हैं । उनकी पूँछ, उनकी गदा, वह स्पष्ट दिखलाई दे रही है । मारे भय के उसने आँखें बंद कर लीं । इतने में कुत्ता उठ बैठा, लाडली को ढाढ़स हुआ । कई सोए हुए मनुष्यों के बदले एक भागता हुआ कुत्ता उसके लिए अधिक धैर्य का कारण हुआ । उसने पिटारी उठाई और बूढ़ी काकी की कोठरी की ओर चली ।

बूढ़ी काकी को केवल इतना स्मरण था कि किसी ने मेरे हाथ पकड़कर घसीटे, फिर ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कोई पहाड़ पर उड़ाए लिए जाता है । उनके पैर बार-बार पत्थरों से टकराए तब किसी ने उन्हें पहाड़ पर से पटका, वे मूर्छित हो गईं ।

जब वे सचेत हुईं तो किसी की ज़रा भी आहट न मिलती थी । समझी कि सब लोग खा-पीकर सो गए और उनके साथ मेरी तकदीर भी सो गई । रात कैसे कटेगी? राम! क्या खाऊँ? पेट में अग्नि धधक रही है । हा! किसी ने मेरी सुधि न ली । क्या मेरा पेट काटने से धन जुड़ जाएगा? इन लोगों को इतनी भी दया नहीं आती कि न जाने बुढ़िया कब मर जाए? उसका जी क्यों दुखावें? मैं पेट की रोटियाँ ही खाती हूँ कि और कुछ? इस पर यह हाल । मैं अंधी, अपाहिज ठहरी, न कुछ सुनूँ, न बूझूँ । यदि आंगन में चली गई तो क्या बुद्धिराम से इतना कहते न बनता था कि काकी अभी लोग खाना खा रहे हैं फिर आना । मुझे घसीटा, पटका । उन्ही पूड़ियों के लिए रूपा ने सबके सामने गालियाँ दीं । उन्हीं पूड़ियों के लिए इतनी दुर्गति करने पर भी उनका पत्थर का कलेजा न पसीजा । सबको खिलाया, मेरी बात तक न पूछी । जब तब ही न दीं, तब अब क्या देंगे? यह विचार कर काकी निराशामय संतोष के साथ लेट गई । ग्लानि से गला भर-भर आता था, परन्तु मेहमानों के भय से रोती न थीं । सहसा कानों में आवाज़ आई-- 'काकी उठो, मैं पूड़ियां लाई हूँ ।' काकी ने लाड़ली की बोली पहचानी । चटपट उठ बैठीं । दोनों हाथों से लाडली को टटोला और उसे गोद में बिठा लिया । लाडली ने पूड़ियाँ निकालकर दीं ।

काकी ने पूछा - क्या तुम्हारी अम्मा ने दी है?

लाडली ने कहा - नहीं, यह मेरे हिस्से की हैं ।

काकी पूड़ियों पर टूट पडीं । पाँच मिनट में पिटारी खाली हो गई ।

लाडली ने पूछा - काकी पेट भर गया ।

जैसे थोड़ी-सी वर्षा ठंडक के स्थान पर और भी गर्मी पैदा कर देती है उस भाँति इन थोड़ी पूड़ियों ने काकी की क्षुधा और इक्षा को और उत्तेजित कर दिया था । बोलीं - नहीं बेटी, जाकर अम्मा से और मांग लाओ ।

लाड़ली ने कहा - अम्मा सोती हैं, जगाऊंगी तो मारेंगीं ।

काकी ने पिटारी को फिर टटोला । उसमें कुछ खुर्चन गिरी थी । बार-बार होंठ चाटती थीं, चटखारे भरती थीं ।

हृदय मसोस रहा था कि और पूड़ियाँ कैसे पाऊँ । संतोष-सेतु जब टूट जाता है तब इच्छा का बहाव अपरिमित हो जाता है । मतवालों को मद का स्मरण करना उन्हें मदांध बनाता है । काकी का अधीर मन इच्छाओं के प्रबल प्रवाह में बह गया । उचित और अनुचित का विचार जाता रहा । वे कुछ देर तक उस इच्छा को रोकती रहीं । सहसा लाडली से बोलीं-- मेरा हाथ पकड़कर वहाँ ले चलो, जहाँ मेहमानों ने बैठकर भोजन किया है ।

लाडली उनका अभिप्राय समझ न सकी । उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर झूठे पत्तलों के पास बिठा दिया । दीन, क्षुधातुर, हत् ज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुनकर भक्षण करने लगी । ओह... दही कितना स्वादिष्ट था, कचौड़ियाँ कितनी सलोनी, ख़स्ता कितने सुकोमल । काकी बुद्धिहीन होते हुए भी इतना जानती थीं कि मैं वह काम कर रही हूं, जो मुझे कदापि न करना चाहिए । मैं दूसरों की झूठी पत्तल चाट रही हूँ । परन्तु बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब सम्पूर्ण इच्छाएँ एक ही केन्द्र पर आ लगती हैं । बूढ़ी काकी में यह केन्द्र उनकी स्वादेन्द्रिय थी ।

ठीक उसी समय रूपा की आँख खुली । उसे मालूम हुआ कि लाड़ली मेरे पास नहीं है । वह चौंकी, चारपाई के इधर-उधर ताकने लगी कि कहीं नीचे तो नहीं गिर पड़ी । उसे वहाँ न पाकर वह उठी तो क्या देखती है कि लाड़ली जूठे पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठा-उठाकर खा रही है । रूपा का हृदय सन्न हो गया । किसी गाय की गरदन पर छुरी चलते देखकर जो अवस्था उसकी होती, वही उस समय हुई । एक ब्राह्मणी दूसरों की झूठी पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असंभव था । पूड़ियों के कुछ ग्रासों के लिए उसकी चचेरी सास ऐसा निष्कृष्ट कर्म कर रही है । यह वह दृश्य था जिसे देखकर देखने वालों के हृदय काँप उठते हैं । ऐसा प्रतीत होता मानो ज़मीन रुक गई, आसमान चक्कर खा रहा है । संसार पर कोई आपत्ति आने वाली है । रूपा को क्रोध न आया । शोक के सम्मुख क्रोध कहाँ? करुणा और भय से उसकी आँखें भर आईं । इस अधर्म का भागी कौन है? उसने सच्चे हृदय से गगन मंडल की ओर हाथ उठाकर कहा-- परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो । इस अधर्म का दंड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जाएगा ।

रूपा को अपनी स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में कभी न दिख पड़े थे । वह सोचने लगी-- हाय! कितनी निर्दय हूँ । जिसकी सम्पति से मुझे दो सौ रुपया आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति । और मेरे कारण । हे दयामय भगवान! मुझसे बड़ी भारी चूक हुई है, मुझे क्षमा करो । आज मेरे बेटे का तिलक था । सैकड़ों मनुष्यों ने भोजन पाया । मैं उनके इशारों की दासी बनी रही । अपने नाम के लिए सैकड़ों रुपए व्यय कर दिए, परन्तु जिसकी बदौलत हज़ारों रुपए खाए, उसे इस उत्सव में भी भरपेट भोजन न दे सकी । केवल इसी कारण तो, वह वृद्धा असहाय है ।

रूपा ने दिया जलाया, अपने भंडार का द्वार खोला और एक थाली में सम्पूर्ण सामग्रियां सजाकर बूढ़ी काकी की ओर चली ।

आधी रात जा चुकी थी, आकाश पर तारों के थाल सजे हुए थे और उन पर बैठे हुए देवगण स्वर्गीय पदार्थ सजा रहे थे, परन्तु उसमें किसी को वह परमानंद प्राप्त न हो सकता था, जो बूढ़ी काकी को अपने सम्मुख थाल देखकर प्राप्त हुआ । रूपा ने कंठारुद्ध स्वर में कहा---काकी उठो, भोजन कर लो । मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना । परमात्मा से प्रार्थना कर दो कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दें ।

भोले-भोले बच्चों की भाँति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है, बूढ़ी काकी वैसे ही सब भुलाकर बैठी हुई खाना खा रही थी । उनके एक-एक रोंए से सच्ची सदिच्छाएँ निकल रही थीं और रूपा बैठी स्वर्गीय दृश्य का आनन्द लेने में निमग्न थी ।