चंदबरदायी का जीवन परिचय chandrabardai ka jeevan parichay


चंदबरदायी का जीवन परिचय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार चंदबरदायी का समय संवत् 1225 से 1249 विक्रमाब्द ठहरता है। चंदबरदायी की ख्याति दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट महाराज पृथ्वीराज चौहान के सखा, सामंत और राजकवि के रूप में सर्वत्र स्वीकृत है। ‘पृथ्वीराज रासो' इनकी एकमात्र प्रख्यात प्रबंधकाव्य कृति है।

इनके पूर्वज पंजाब के निवासी थे और इनका जन्म लाहौर में हुआ था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ये षड्भाषा, व्याकरण, काव्य-साहित्य, छंदशास्त्र, ज्योतिष, पुराण, नाटक आदि अनेक विधाओं में पारंगत थे। इन्हें जालंधरी देवी का इष्ट था जिनकी कृपा से ये अदृष्ट काव्य भी कर सकते थे। इनका जीवन पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिलाजुला था कि अलग नहीं किया जा सकता। युद्ध में, आखेट में, सभा में, यात्रा में सदा महाराज के साथ रहते थे और जहाँ जो बातें होती थीं, सब में सम्मिलित रहते थे। इससे महाराज पृथ्वीराज और महाकवि चंदबरदायी के अंतरंग आत्मीय संबंधों का ज्ञान होता है ।

'पृथ्वीराज रासो' ढाई हजार पृष्ठों का एक बृहतकाय ग्रंथ है। इस ग्रंथ की कथावस्तु 69 समय (सर्गों) में विभक्त है। महाराज पृथ्वीराज के शौर्य और पराक्रम पर केंद्रित इस प्रबंधकाव्य की कथा के अनुसार जब शहाबुद्दीन गोरी पराजित पृथ्वीराज को बंदी बनाकर गजनी ले गया तब पृथ्वीराज को मुक्त कराने की प्रत्याशा में कुछ दिन बाद चंदबरदायी भी गजनी गए। गजनी जाने से पूर्व 'पृथ्वीराज रासो' की अपूर्ण प्रति चंदबरदायी ने अपने पुत्र 'जल्हण' को सौंपकर उसे पूर्ण करने का निर्देश दिया- "पुस्तक जल्हन हत्थ दै चलि गज्जन नृपकाज" चंद के इस ग्रन्थ को जल्हण द्वारा पूर्ण किए जाने की सूचना भी पृथ्वीराज रासो में अंकित है-

"रघुनाथ 'चरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्धरिय जिमि ।
पृथ्वीराज सुजस कवि चंद कृत चंदनंद उद्धरिय तिमि ।।"

रासो की कथा के अनुसार गजनी में चंदबरदायी के प्रयत्न से शहाबुद्दीन गोरी ने पृथ्वीराज चौहान की शब्दबेधी बाण-विद्या का प्रदर्शन कराया और उस कला प्रदर्शन में नेत्रहीन पृथ्वीराज ने चंदबरदाई के संकेत पर निशाना साध कर गोरी का वध कर दिया और उसके पश्चात दोनों मित्रों ने परस्पर तलवार का प्रहार करके अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। राजभक्ति और मैत्री का ऐसा उदाहरण विश्व साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। 'पृथ्वीराज रासो' की हस्तलिखित प्रतियाँ उदयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। 'नागरी प्रचारिणी सभा, काशी' ने सन 1585 ईसवी में लिखित प्रति का संपादन कराया। इस ग्रंथ के अनेक संस्करण मिलते हैं। इस ग्रंथ में प्राचीन समय में प्रचलित प्रायः सभी छंदों का व्यवहार हुआ है। इसमें 16306 छंद हैं। इसके कई संस्करण अलग-अलग संख्या में निकले हैं। चौथा संस्करण सबसे छोटा है जिसमें केवल 1300 छंद हैं। भाषा की कसौटी पर यह ग्रंथ अधिक सफल नहीं है। इसकी व्याकरणिक व्यवस्था त्रुटिपूर्ण है। भाषा में कहीं प्राचीनता और कहीं नवीनता दिखाई देती है। उसमें प्राकृत एवं अपभ्रंश शब्दों के साथ-साथ शब्दों के रूप और विभक्तियों के पुराने ढंग के चिन्ह बहुत मिलते हैं। अनेक विद्वानों ने 'पृथ्वीराज रासो' की प्रामाणिकता पर बहुत से प्रश्न खड़े किए हैं तथापि आदिकाल की रासो काव्य परंपरा में इस ग्रंथ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है।

व्याख्यांश -

कनवज समय (कवित्त 144, 145, 146 )

तास जुद्ध मंडयौ ।
जास जनयौ सवर वर ।।

केईक तकि गहि पात।
केइ गहि डार मुर तरु ।।

केइत दंत तुछ त्रिन्न ।
गए दस दिसनि भजि डर ।।

भुअ लोकत दिन अचिरिज भयौ।
मान सबर वर मरदिया ।।

प्रथिराज पलन पद्वौ जु पर ।
सुर्यो दुव्यरौ वरदिदया ।

हंस न्याय दुब्वरौ ।
मुत्ति लम्भै न चुनंतह ।।

सिंध न्याय दुब्वरौ ।
करी चंपे न कंठ कह ।।

मृग्ग न्याय दुब्वरौ ।
नाद बंधियै सु बंधन ।।

छैल छक्क दुब्वरौ ।
त्रिया दुब्बरी मीत मन ।।

आसाढ़ गाढ़ बंधन धुरा ।
एकहि गहि हहरद्दिया ।।

चढ़ि तुरंग चहुवान। पान फेरीत परद्धर ।
जंगर जुरारि उज्जर पर न क्यों दुबवरौ बरद्दिया ।

पुरै न लग्गी आरि ।
भारि लद्यौ न पिट्ट पर ।।

गज्जवार गंभार।
गही गठ्ठी न नथ्थ कर ।।

भ्रम्यौ न कृप भावरी ।
कबंहुक सब सेन रुत्तो ।।

पंच धारि ललकारि ।
रथ्थ सथ्थी जह जुत्तौ ।।

आसाढ़ मास बरषा समै ।
कध न कहीं हरद्दिया ।।

कमधज्ज राव इम उच्चरै ।
सुक्यों दुबवरौ बरद्दिया ।।