नीरू और नीमा (Niru aur nima)


नीरू और नीमा की कहानी

नीरू-नीमा जुलाहे दम्पत्ति थे। वे निःसंतान थे। नीरू और नीमा ब्राह्मण दम्पत्ति थे जिनका मुसलमानों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया था। नीरू का नाम गौरीशंकर था एवं नीमा का नाम सरस्वती था। गौरी शंकर ब्राह्मण भगवान शिव का उपासक था तथा शिव पुराण की कथा करके भगवान शिव की महिमा का गुणगान किया करता था। गौरी शंकर निर्लोभी था। कथा करने से जो धन प्राप्त होता था, उसे धर्म में ही लगाया करता था। जो व्यक्ति कथा कराते थे तथा सुनते थे, सर्व गौरी शंकर ब्राह्मण के त्याग की प्रशंसा करते थे। जिस कारण से पूरी काशी में गौरी शंकर की प्रसिद्धि हो रही थी। अन्य स्वार्थी ब्राह्मणों का कथा करके धन इकत्रित करने का धंधा बन्द हो गया। इस कारण से वे ब्राह्मण उस गौरी शंकर ब्राह्मण से ईर्ष्या रखते थे।

इस बात का पता मुसलमानों को लगा कि एक गौरी शंकर ब्राह्मण काशी में हिन्दू धर्म के प्रचार को जोर-शोर से कर रहा है। इसको किस तरह बन्द करें। मुसलमानों को पता चला कि काशी के सर्व ब्राह्मण गौरी शंकर से ईर्ष्या रखते हैं। इस बात का लाभ मुसलमानों ने उनका धर्म परिवर्तन करके उठाया। पुरूष का नाम नूरअली उर्फ नीरू तथा स्त्री का नाम नियामत उर्फ नीमा रखा गया। ब्राह्मणों ने समाज से बहिष्कृत कर दिया। धर्म परिवर्तित होने के कारण उनके लिए रोजगार की समस्या आ खड़ी हुई जिसका निराकरण करते हुए दोनों पति पत्नी ने जुलाहे का कार्य प्रारम्भ कर दिया।

विवाह को कई वर्ष बीत गए थे। उनको कोई सन्तान नहीं हुई। दोनों पति-पत्नी ने बच्चे होने के लिए बहुत अनुष्ठान किए, साधु सन्तों का आशीर्वाद भी लिया, परन्तु कोई सन्तान नहीं हुई। हिन्दुओं द्वारा उन दोनों का गंगा नदी में स्नान करना बन्द कर दिया गया था। किन्तु हृदय से वे दोनों ही अब तक हिन्दू धर्म की साधना ही करते रहे। गंगा में नहाने से रोक लगने पर उन्होंने उस तालाब में नहाना प्रारम्भ कर दिया जो उनके निवास स्थान से लगभग चार कि.मी. दूर था। यह एक लहरतारा नामक सरोवर था जिस में गंगा नदी का ही जल लहरों के द्वारा नीची पटरी के ऊपर से उछल कर आता था। इसलिए उस सरोवर का नाम लहरतारा पड़ा। उस तालाब में बड़े-बड़े कमल के फूल उगे हुए थे।

वेदों में प्रमाण है कि परमेश्वर कबीर अपनी आत्माओं को ज्ञान समझाने के उद्देश्य से पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। पूर्ण परमेश्वर का जन्म माँ से नहीं होता। वे सशरीर स्वयं अवतरित होते हैं एवं उनकी मृत्यु भी नहीं होती। वे सशरीर सतलोक जाते हैं। परमेश्वर कबीर साहेब ज्येष्ठ मास की शुक्ल पूर्णमासी विक्रमी संवत् 1455 (सन् 1398 को आकाश से आकर लहरतारा तालाब के ऊपर विराजमान हुए। इस घटना के प्रत्यक्षदृष्टा ऋषि अष्टानांद जी थे। ऋषि अष्टानंद जी रामानंद जी के शिष्य थे जो अपनी दैनिक साधना के लिए लहरतारा तालाब के पास एकांत में बैठे हुए थे। उन्होंने आकाश से एक तेज प्रकाश का गोला उतरते देखा जिससे उनकी आंखें चौंधिया गईं। धीरे धीरे वह प्रकाश कमल के पुष्प पर सिमट गया।

कबीर साहेब उस पुण्यकर्मी दम्पत्ति को यों ही नहीं मिल गए बल्कि परमेश्वर कबीर ने उन्हें अपने पालक के रूप में चुना था। वेदों में वर्णन है कि परमेश्वर कबीर प्रत्येक युग में आते हैं। परमेश्वर सतयुग में सत सुकृत नाम से, त्रेतायुग में मुनींद्र नाम से, द्वापरयुग में करुणामयी नाम से और कलियुग में अपने वास्तविक नाम कबीर से आये। द्वापरयुग में करुणामयी नाम से आए कबीर साहेब के शिष्य हुए सुपच सुदर्शन। सुपच सुदर्शन ने परमेश्वर कबीर का तत्वज्ञान समझा और उनके वास्तविक रूप के दर्शन किए थे। किन्तु उनके माता पिता ने ज्ञान नही समझा और वे कबीर साहेब को भगवान मानने को तैयार ना हुए। वृद्धावस्था में उनकी मृत्यु होने पर सुपच सुदर्शन ने परमेश्वर कबीर से यह प्रार्थना की कि किसी जन्म में वे उनके माता पिता पर भी दया करें और उनका मोक्ष कराएं। नीरू और नीमा वाली आत्मा पूर्व जन्म में सुपच सुदर्शन के माता-पिता के रूप में थी।

Popular posts from this blog

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि करांहि । मुक्ताफल मुक्ता चुगै, अब उड़ी अनत न जांहि ।।

हिन्दू मुआ राम कहि, मुसलमान खुदाई । कहै कबीरा सो जीवता, जो दुहूं के निकट न जाई ।।

गोदान उपन्यास का सारांश (godan upanyas ka saransh)