गोरखनाथ कसा जीवन परिचय gorakhnath ka jeevan parichay


गोरखनाथ कसा जीवन परिचय

नाथ-साहित्य के प्रारंभकर्ताओं में गोरखनाथ प्रमुख हैं। अनेक इतिहास- ग्रंथों में उन्हें गोरक्षनाथ भी कहा गया है। वस्तुतः नाथपंथ का साहित्य आदिकाल में हिन्दी भाषा के प्रादुर्भाव के साथ-साथ विकसित हुआ है। 'गोरक्ष सिद्धांत-संग्रह' में नाथ संप्रदाय के पंथ-प्रवर्तकों के नाम इस प्रकार गिनाए गए हैं- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पट, जलंधर, और मलयार्जुन। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी 'नवनाथ' मान्य किये हैं। उपर्युक्त नाथ- अनुक्रमणिका में गोरखनाथ का क्रम छठा है। इस दृष्टि से उनका समय आदिकाल के मध्य में मान्य किया जाना युक्तियुक्त है।

गोरखनाथ के गुरु का नाम मत्स्येंद्रनाथ था। हिन्दी और संस्कृत में गोरक्षनाथ के नाम से रचित अनेक रचनाएँ उपलब्ध हैं किंतु उनमें से अधिकांश की प्रमाणिकता संदिग्ध है। डॉ. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से प्रकाशित 'गोरखवानी' में उनकी शब्द, पद आदि चालीस पुस्तकों को प्रस्तुत किया। उनके अनुसार 'सबदी' गोरखनाथ की सबसे अधिक प्रामाणिक रचना है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- नाथ संप्रदाय के सिद्धांत-ग्रंथों में ईश्वरीय उपासना के बाह्य-विधानों के प्रति उपेक्षा प्रकट की गई है। घट के भीतर ही ईश्वर को प्राप्त करने पर जोर दिया गया है। नाथ-पंथ के यही सिद्धांत आगे चलकर भक्तिकाल के निर्गुण कवियों की रचनाओं में विकसित हुए। वास्तव में भक्तिकाल का निर्गुण काव्य गोरखनाथ आदि नाथपंथी साधुओं का ऋणी है।

गोरखनाथ के नाम से प्रख्यात रचनाओं में सबदी, पद, प्राणसंकली, सिप्या दरसन, नरवैबोध, अभैमात्रा जोग, आत्म-बोध, पन्द्रह- तिथि, सप्तवार, मछीन्द्र- गोरखबोध, रामावली, ग्यान तिलक, ग्यान चौतीसा तथा पंच मात्रा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन काव्य कृतियों में आध्यात्मिक योग साधना के साथ-साथ नीति ज्ञान की भी प्रस्तुति मिलती है। गुरु की महिमा इंद्रिय निग्रह, वैराग्य, प्राणसाधना, मनः साधना, शून्य समाधि, कुंडलिनी जागरण आदि अनेक विषयों का अटपटी भाषा में गूढ़ वर्णन इन ग्रंथों की प्रमुख विशेषताएँ हैं। चित्त की शुद्धता और नैतिकता में आस्था की दृष्टि से भी गोरखनाथ के साहित्य का महत्व है। गोरखनाथ की हिन्दी- कृतियों की भाषा पुरानी हिन्दी है। उसके कुछ उदाहरण निम्नवत प्रस्तुत हैं।

  1. "नौ लख पातर आगे नाचें, पीछे सहज अखाड़ा ऐसे मन लै जोगी खेलें, तब अंतरि बसै भंडारा ।। "
  2. "घन जोवन की करै न आस। चित्त न राषै कामिनि पास।। "
  3. " गगन मंडल में गाय बियाई । कागद दही जमाया।। "

हिन्दी भाषा के प्रारंभिक विकास-काल में प्राप्त इन विविध उद्धरणों में हिन्दी का सहज प्रछन्न रूप दिखाई देता है। अपभ्रंश, फारसी आदि अन्य देशी-विदेशी भाषाओं के शब्द भी देशज शब्दों के साथ घुल मिलकर गोरखनाथ की काव्यभाषा में प्रयुक्त हुए हैं। हिन्दी की परवर्ती विकास यात्रा में यह साहित्यिक भाषिक रूप नींव का पत्थर बना है। भक्ति साहित्य को समझने की दृष्टि से भी गोरखनाथ की काव्य-कृतियों का विशेष महत्व है।

गोरखबानी सबदी ( पद- 2, 4, 7, 8, 16 )

अदेषि देषिवा देषि बिचारिबा अदिसिटि' राषिबा चीया ।
पाताल की गंगा ब्रह्मड चढाइबा, तहाँ बिमल बिमल जल पीया ।।

वेद कतेब न षांणी वांणीं। सब ढंकी तलि आणीं ।
गगनि सिषर महि सबद प्रकास्या ।
तहं बूझै अलष बिनाणीं ।।

हसिबा षेलिया रहिबा रंग काम क्रोध न करिबा संग ।
हसिबा पेलिबा गाइबा गीत दिढ़ करि राषि आपनां चीत ।।

हंसिबा पेलिबा धरिबा ध्यानं, अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियांन।
हंसै पेलै न करै मन भंग, ते निश्चल सदा नाथ के संग ।।

अह निसि मन लै उनमन रहै, गम की छांड़ि अगम की कहै।
छाड़े आसा र निरास, कहे ब्रह्ममा हूँ ताका दास ।।

राग रामग्री ( पद- 10, 11 )

मनसा मेरी व्यापार बांधौ,पवन पुरषि उतपन जाग्यौ जोगी अध्यात्म लागौ,
काया पाटण में जानो ।। टेक।।

इकबीस सहंस पटसां आदू पवन पुरिप जप माली ।
इला प्यंगुला सुषमन नारी, अहनिसि वह प्रनाली ।।

षटस पोड़ि कवल दल धारा, तहाँ बसै ब्रहाचारी।
हंस पवन ज फूलन पैठा, नौ से नदी पनिहारी ।।

गङ्गा तीर मतीर अवधू, फिरि फिरि बणिजां कीजै ।
अरघ वहन्ताः उर लीजै, रवि सस मेला कीजै ।।

काया कंथा, मन जोगोटा, सत गुर मुझ लपाया।
भणत 'गोरपनाथ रूड़' रापौ, नगरी चोर मलाय ।।

अवधू बोल्या तत विचारी, पृथ्वी मैं बकवाली।
अष्टकुल परवत' जल बिन तिरिया, अदबुद अचंभा भारी ।। टेक ॥।

मन पवन अगम उजियाला, रवि ससि तार गयाई ।
तीनि राज त्रिविधि' कुल नाहीं, चारि जुग सिधि' बाई ।।

पांच' सहस मैं पट अपूठा, सप्त्' दीप अष्ट नारी ।
नव पंड पृथी इकवीस मांहीं, एकादसि एक तारी ।।

द्वादसी त्रिकुटी यता पिंगुला, चवदसि चित मिलाई ।
पोडस कवल दल सोल वतीसौ जुरा मरन भौ गमाई ।।

चंद सूर दोऊ गगन बिलूधा भईला घोर अंधारं ।
पंच बाहक जब न्यंद्रा पौड्या, प्रगट्या पॉलि पगारं ।।

दसवें द्वार निरंजन उनमन वासा, मबदें उलटि समानां ।
भणत गोरपनाथ मछीद्र नां" पूना अविचल थीर' रहांनां ।।