भक्तिकाल : पृष्ठभूमि एवं प्रमुख कवि bhaktikal prasthbhoomi evam pramukh kavi


भक्तिकाल : पृष्ठभूमि एवं प्रमुख कवि

हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल भारतीय ज्ञान संपदा के संरक्षण और अपनी अस्मिता को बनाए रखने के लिए किए गए संघर्ष के लिए रेखांकनीय है। इस्लाम के प्रचार-प्रसार हेतु किए जा रहे सशस्त्र आक्रमणकारी विदेशी जब भारतवर्ष की राजशक्तियों को दमित कर सांस्कृतिक मानमूल्यों पर प्रचंड प्रहार कर रहे थे, तब समाज के मध्य से साधु-संतों ने समाज का नेतृत्व करने के लिए अपनी काव्यमयी वाणी का सदुपयोग किया। निर्गुण काव्य के रूप में आस्थामूल्क ईश्वरभक्ति समाज का दृढ़ कवच बनी तो सगुण-काव्य के केंद्र राम और कृष्ण की असुर संहारक छवि ने समाज को आक्रामक शक्तियों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष की प्रेरणा दी। अनेक संतों ने रणक्षेत्रों में उतरकर प्रत्यक्ष संघर्ष भी किया किन्तु हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों-समीक्षकों ने भक्तिकाव्य के इस पक्ष की उपेक्षा की है और भक्तिकाल को हताश निराश समाज की भावाभिव्यक्ति के रूप में अंकित कर भ्रांतियाँ निर्मित की हैं। भक्ति-काव्य में आस्तिकता का प्रकाश, मानव मूल्यों की संचेतना और भारतीय शौर्य की संदीप्ति एक साथ प्रकट हुई है। युवा पीढ़ी को भक्तिकाव्य के इस ओजस्वी स्वरूप से अवगत कराना इस इकाई का प्रमुख प्रयोजन है। अन्य आनुषंगिक प्रयोजन इस प्रकार हैं-

  1. भक्तिकाल की सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का परिचय देना ।
  2. भक्तिकाव्य की विभिन्न धाराओं से अवगत कराते हुए उनमें साम्य-वैषम्य की प्रस्तुति करना ।
  3. ज्ञानाश्रयी शाखा के माध्यम से ज्ञान की अवधारणा और प्रेमाश्रयी शाखा के अध्ययन द्वारा प्रेम की अवधारणा से परिचित कराना।
  4. भक्तिकाल के कवियों और विविध धाराओं की प्रमुख प्रवृत्तियों का ज्ञान देना।
भक्ति आंदोलन : सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि -

राजनैतिक और सांस्कृतिक आक्रमण के बीच अपनी अस्मिता एवं गौरव की रक्षा के लिए निरंतर संघर्षशील समाज में समरसता स्थापित करने, सामाजिक जीवन के विविध पक्षों में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने में संत कवियों की भूमिका सराहनीय रही है। आक्रामक शक्तियों को प्रबल टक्कर देने में अनेक राजसत्ताओं के विफल होने तथा समझौतावादी नीतियाँ अपना लेने के घोर संकटकाल में भी जिन साधु- संतों, महात्माओं, नागाओं, वैरागियों, कवियों ने शब्द और शस्त्र के धरातल पर भारतीय समाज में स्वातंत्र्य-चेतना का स्वर्णदीप आलोकित किया उनके महान कृतित्व के कारण हिन्दी साहित्य के गौरवशाली इतिहास में भक्तिकाल को स्वर्ण युग कहा जाता है। भारतीय मनीषा मानवीय गरिमा की रक्षा के लिए शस्त्र और शास्त्र- दोनों के उपयोग हेतु भक्तिकाल में समाज का मार्गदर्शन करती रही।

संवत् 1375 से 1700 तक भक्तिकाल के लम्बे कालखंड में भक्तकवि संघर्षमयी परिस्थितियों के अनुरूप अपनी साहित्य-सृष्टि रचते हैं। भक्तिकाल के पूर्वार्ध में संत कबीर और जायसी साहित्य की पूर्व प्रचलित नाथ-सिद्ध बौद्ध परंपरा के अनुरूप ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप की प्रतिष्ठा करते हैं तो मध्य एवं उत्तरार्ध में सूर- तुलसी सगुण ब्रह्म को आधार बनाकर समाज में संघर्ष की चेतना तथा आत्मरक्षा का विचार दृढ़ करते हैं। भक्ति के ये दोनों पक्ष महत्वपूर्ण हैं और मानवीय रुचि, आवश्यकता एवं संस्कार के अनुरूप समाज का प्रदर्शन करते हुए मिलते हैं।

छायावाद के प्रख्यात कवि 'महाप्राण निराला' ने अपनी 'तुलसीदास' शीर्षक रचना में उस युग की विषम परिस्थितियों का वर्णन करते हुए लिखा है-

"ऊपर छाया घन अंधकार
टूटता बज्र दह दुर्निवार
नीचे प्लावन की प्रलय धार
ध्वनि हर-हर ।"

भक्तिकालीन समाज अपने संरक्षक राजाओं के संघर्ष विरत होकर इस्लामिक सत्ता के साथ सहयोग करने से दिशाहीन हो जाता है। यही ऊपर का घना अंधकार है । विजेता के उन्माद से भरी इस्लामिक सत्ता समाज इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए अत्याचार करती है। नए-नए कर लगाती है। मंदिर ढहाती है। सनातन सांस्कृतिक मान-मूल्यों पर नित नवीन प्रहार करती है। मेवाड़ का राजवंश इसके निवारण का प्रयत्न करता है किंतु उसकी सफलता अन्य राजवंशों से सहयोग न मिल पाने के कारण सीमित रह जाती है। राष्ट्र के व्यापक फलक पर पीड़ित समाज की रक्षा नहीं कर पाती । जातियों-संप्रदायों में बैठी हुई और कुरीतियों, आडंबरों के मकड़जाल में उलझी हुई सामान्य जनता की दिशाहीनता ही प्लावन की प्रलय धार है जिसमें केवल चतुर्दिक संघर्ष की हर-हर ध्वनि ही सुनाई पड़ती है। ऐसे संकटग्रस्त समाज का संरक्षण भक्तिकालीन कवियों की आत्मबल संपन्न मानवमूल्यपरक दृष्टि से ही संभव हो सका।

भक्तिकाल की राजनीतिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि उसके पूर्वार्ध में दिल्ली पर तुगलक और लोधी वंशों की सत्ता थी। उत्तर और मध्य भारत का अधिकतर भाग उनके नियंत्रण में था। उत्तरार्ध में सत्ता मुगलों के हाथ में चली गई किंतु समाज के संकट कम नहीं हुए क्योंकि भारतीय जनता के लिए ये सभी शासक विजेता आक्रांता ही थे जो अपने वर्चस्व विस्तार, भोगविलास और इस्लामधर्म के प्रचार-प्रसार के लिए आतंक का वातावरण निर्मित करते रहे। यद्यपि अनेक भारतीय राजा उनके आतंक से उनके सहयोगी बन गए और अपने ही सजातीय भारतीय नरेशों के साथ संघर्ष करके अपनी राजसत्ता को बचाने में लग गए तथापि दक्षिण के राज्य और उत्तर के अनेक राजा अपनी स्वतंत्रता के लिए जूझते रहे। देश की देह भले ही आक्रमणकारियों के आधिपत्य में चली गई किंतु उसकी संघर्ष चेतना रूपी आत्मा सदा स्वतंत्र रही। भक्तिकाल के परवर्ती युग रीतिकाल में शिवाजी, छत्रसाल, गुरुगोविंद सिंह आदि ने मुगल सत्ता की शक्ति नष्ट करके स्वतंत्र राज्य स्थापित किए। इन समस्त स्थापनाओं की मूल प्रेरणा भक्तिकालीन कवि तुलसीदास, मराठी संत समर्थ गुरु रामदास, स्वामी प्राणनाथ और सिख गुरुओं के साहित्य में निहित है।

भक्तिकाल की विषम परिस्थितियों को लक्ष्यकर अनेक विद्वानों ने भक्ति- साहित्य को तत्कालीन जनमानस में उत्पन्न निराशा की उपज बताया है किंतु यह विचार तत्कालीन परिस्थितियों और साहित्यिक प्रस्तुतियों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । भारतीय लोकमानस सदा से ईश्वरीय आस्था का आश्रय ग्रहण करता आया है और वही आश्रय भक्तिकालीन काव्य में भी ग्रहण किया गया है। यहाँ यह भी रेखांकनीय है की विषम निराशाजनक परिस्थितियाँ उत्तर भारत में हैं जबकि भक्ति का नया स्रोत दक्षिण भारत के शांत वातावरण में आलवार संतों की वाणी से फूटता है। इसलिए भक्ति को निराशा की उपज बताना भ्रामक है। भक्तिकाल सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष के मध्य समन्वय के पथ का नवीन अनुसंधान है। इसके पूर्वार्ध में कबीर, जायसी आदि निर्गुण संत और उत्तरार्ध में गोस्वामी तुलसीदास आदि सगुण संत समाज में समरसता का रास्ता भक्ति के धरातल पर निर्मित करते हैं-

"जाति पाँति बूझै नहिं कोई ।
हरि को भजै सो हरि का होई ।। "

भक्तिकाल में समाज ऊँच-नीच, पर्दा प्रथा, बाल विवाह आदि कुरीतियों से ग्रस्त दिखाई देता है। इसके उत्तरार्ध में तो अकाल और महामारियाँ भी समाज को त्रस्त करती हैं। घूसखोर राजकर्मचारी जनता के धन का अपहरण करते हैं। परिणामतः समाज में अपराध की बाढ़ आ जाती है-

"वाढ़े बहु खल चोर जुआरा।"

समाज की इस दुखद दयनीय स्थिति के लिए उत्तरदायी मुगल शासकों के अबाध विलास को देखकर इस युग के संत कवि उनसे दूरी बनाते हैं और उनके राजदरबारों के प्रलोभन अस्वीकार कर देते हैं। संतों का यह वैराग्यभाव और ईश्वरीय भक्ति के प्रति समर्पण एक ओर जनता को अत्याचारी शासक वर्ग से दूरी बनाने को प्रेरित करता है तो दूसरी ओर बैरागी साधुओं के अखाड़ों द्वारा तीर्थों और मंदिरों की रक्षा के लिए मरने-मारने पर तुल जाना, जीवन की अंतिम सांस तक युद्ध करना भी निराश जनमन में आशा का प्रकाश भरता है।

भक्तिकाल के समाज में एक ओर विदेशी विजेताओं द्वारा एक हाथ में तलवार और दूसरे में कुरान लेकर संपूर्ण भारतवर्ष के इस्लामीकरण की सर्वग्रासी कुदृष्टि है तो दूसरी ओर सूफी संतों द्वारा भारतीय लोककथाओं का आश्रय लेकर अपने विचारों और मान्यताओं के क्षेत्र विस्तार का गूढ़ प्रयत्न है। भारतीय संत भक्त ईश्वर भक्ति के माध्यम से इन दोनों आक्रमणों को दूर तक विफल बनाते हैं। निर्गुणमत मूर्ति खंडित होने की पीड़ा से अपने समाज को उबार लेता है और सगुणमत अवतारवाद की अवधारणा को पुष्ट करके राम और कृष्ण के पराक्रम का स्मरण दिलाता हुआ सांस्कृतिक संरक्षण का संघर्ष पथ प्रशस्त करता है। कबीर, नानक आदि निर्गुण उपासक और रामानंद तथा वल्लभाचार्य आदि सगुण आराधक भक्ति के माध्यम से समाज में नयी चेतना, आत्मगौरव की उन्नत भावना इस प्रकार भर देते हैं कि भारतीय लोकमानस हर संकट में अपनी रक्षा का प्रयत्न करने को उद्यत हो जाता है। वह प्राण देकर भी प्रण का निर्वाह करता है और अपनी भावी पीढ़ियों को संघर्ष जारी रखने का अक्षय सूत्र दे जाता है। हार के कठोर प्रहार के बाद भी जीतने की जिद तत्कालीन भारतीय समाज ने अपने संत और भक्त कवियों की निर्भय वाणी से पाई है। इस प्रकार भक्तिकाल का सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश संकट के कंटकों के मध्य मानवीय अस्मिता के सुरभित सुमन विकसित करने का प्रयत्न है।

काव्यधाराएँ एवं प्रवृत्तियाँ -

ब्रह्म सत्ता को लेकर संसार में दो विचार हैं- प्रथम के विचार वेद-उपनिषद् के अनुसार है और दूसरे अवैदिक विचार के अनुसार है। प्रथम विचार में वेदों पर आस्था रखने वालों को 'आस्तिक' और द्वितीय विचार को स्वीकार करने वाले लोगों को नास्तिक कहा जाता । ब्रह्म सत्ता के संदर्भ में 'अस्ति' और 'नास्ति' की यही दो दृष्टियाँ मानव जीवन को सदा से प्रभावित करती रही हैं।

आस्तिक वर्ग में पुनः दो दृष्टियों का विकास मिलता है। एक दृष्टि ईश्वर को निर्गुण और निराकार मानती है। इस दृष्टि के अनुसार ईश्वर जगत के कण- कण में व्याप्त है। उसका कोई रूप-रंग नहीं है। वह जन्म और मृत्यु से परे है। समस्त सृष्टि का संचालन वही करता है। वह दर्शन नहीं देता केवल ज्ञान अथवा प्रेम द्वारा अनुभव किया जा सकता है। उसकी मूर्ति बनाकर उसे पूजना व्यर्थ है। ध्यान, धारणा, समाधि आदि योगिक क्रियाएँ उसकी अनुभूति में सहायक बनती हैं। ये विचार निर्गुण भक्ति की आधारभूमि हैं। कबीर, नानक, रज्जब, दादूदयाल, सहजोबाई, जायसी, कुतवन आदि कवि निर्गुण भक्ति के साधक हैं।

आस्तिकता - बोध से उत्पन्न दूसरी दृष्टि ईश्वर के निर्गुण-निराकार अव्यक्त स्वरूप को स्वीकार करने के साथ-साथ उसके सगुण साकार स्वरूप को भी स्वीकार करती है और यह मानती है कि जब-जब संसार में अत्याचार अनाचार बढ़ता है। तब-तब सृष्टि की संचालक ईश्वरीय शक्ति पृथ्वी पर अवतरित होकर सज्जनों की रक्षा और दुष्टों का संहार करती है-

"जब-जब होहि धरम कै हानी ।
बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ।।

तब-तब धरि प्रभु मनुज सरीरा ।
हरिहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।"

इस प्रकार संसार में अनादिकाल से भक्ति की दो धाराएँ निर्गुणधारा और सगुणधारा प्रवाहित हो रही हैं। भक्तिकाल में यह प्रवाह और अधिक प्रबल रूप में प्रकट हुआ है। भक्ति की निर्गुण और सगुण धाराएँ पुनः दो वर्गों में विभक्त मिलती हैं। निर्गुण धारा में कबीर, नानक आदि कवि ईश्वर की प्राप्ति में 'ज्ञान' की आवश्यकता पर बल देते हैं जबकि जायसी आदि सूफी कवियों ने ईश्वर की प्राप्ति 'प्रेम' से बतायी है। इस प्रकार निर्गुण-धारा में भक्ति के दो मार्ग हैं- ज्ञानमार्ग और प्रेममार्ग। इन पृथक- पृथक पर्थों का अनुसरण करने के कारण कबीर आदि कवियों को ज्ञानमार्गी तथा जायसी आदि सूफी रचनाकारों को प्रेम मार्गी कहा गया है।

निर्गुण धारा के समान सगुण धारा में भी दो शाखाएँ विकसित हुई हैं। इस धारा के रचनाकारों ने ‘श्री विष्णु' के रूप में ब्रह्म को मान्यता दी है तथा श्रीराम और श्रीकृष्ण को उनके अवतार के रूप में अपना उपास्य बनाया है। 'श्रीमद्भागवत' आदि पुराणों के आधार पर भक्तिकालीन सगुण कवियों ने 'रामभक्ति शाखा' और ‘कृष्णभक्ति शाखा' की परंपरा को प्रवाह प्रदान किया। स्वामी रामानंद और वल्लभाचार्य ने क्रमशः रामभक्ति एवं कृष्णभक्ति की जो भावधाराएँ प्रवाहित कीं उनसे समस्त भक्तिकाल संसिक्त है। भक्तिकाल के पूर्वार्ध में निर्गुण और उत्तरार्ध में सगुण धारा अधिक सशक्त दिखाई देती है। भक्तिकाल की ये शाखाएँ - धाराएँ एवं इनके प्रतिनिधि कवि निम्नवत दृष्टव्य हैं-

निर्गुण धारा- ज्ञानमार्गी शाखा की प्रवृतियाँ-

  1. निर्गुण धारा की ज्ञानमार्गी शाखा के कवियों ने योग और ज्ञान को ईश्वर प्राप्ति का साधन बताया।
  2. निर्गुण काव्य का विकास मूलतः बौद्ध धर्म की उपशाखा बज्रयान की प्रतिक्रिया और नाथ संप्रदाय से प्रभावित माना गया है। इसलिए इसकी मूल चेतना वैदिक- पौराणिक परंपरा से सर्वथा छिन है और सगुण रूप का सशक्त खंडन करती हुई मूर्तिपूजा, तीर्थाटन आदि उपासना विधियों का प्रबल विरोध करती है।
  3. ज्ञानाश्रयी शाखा में निर्गुण राम की कल्पना की गई है। जनसाधारण में राम की लोकप्रियता को देखकर उसमें अपनी पैठ बनाने के लिए निर्गुण कवियों ने राम के नाम का भरपूर उपयोग किया किंतु अपनी मान्यताओं के अनुरूप राम का सगुण स्वरूप अस्वीकृत कर उन्हें निर्गुण बताया-
  4. "निरगुन राम जपहुँ रे भाई ।
    अविगत की गति लखी न जाई।।"

  5. ज्ञानाश्रयी शाखा के काव्य में एकेश्वरवाद की प्रतिष्ठा मिलती है। ब्रह्म एक ही है। यह विचार वैदिक परंपरा में भी दृढ़ता पूर्वक रेखांकित हुआ है।
  6. कबीर आदि निर्गुण संतों ने ईश्वर के स्मरण (सुमिरन) पर विशेष बल दिया है।
  7. इस शाखा में गुरु की महिमा ईश्वर से अधिक कही गई है।
  8. सत्संगति का महत्व, अहंकार का त्याग, सदाचार का संदेश और सामाजिक समरसता की स्थापना का प्रयत्न भी ज्ञानाश्रयी शाखा की विशिष्ट प्रवृत्तियाँ हैं।
  9. इस शाखा के कवियों ने ईश्वर को पुरुष और जीवात्मा को स्त्री रूप में प्रस्तुत कर दांपत्य प्रेम पद्धति परक रहस्यवादी काव्य-सृष्टि की है।
  10. ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों ने नारी को माया का प्रतीक मानकर और साधना मार्ग की बाधा बताकर उसकी निंदा की है किंतु कहीं-कहीं पर पतिव्रता नारी की प्रशंसा भी मिलती है।
  11. भाषा-शैली एवं अन्य कलात्मक संदर्भों में ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि साहित्यिक मान्यताओं के आग्रही नहीं हैं। उनकी भाषा में अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी, पंजाबी आदि भाषाओं के शब्दों की समवेत प्रस्तुति हुई है ।
  12. सिद्धों और नाथों का प्रभाव उनमें चमत्कार प्रदर्शन की प्रवृत्ति भी दर्शाता है। अटपटी वाणी और उलटबांसियाँ इस प्रवृत्ति की परिचायक हैं। अलंकार, प्रतीक आदि कलात्मक प्रतिमानों का सहज समावेश हुआ है।

निर्गुण धारा- प्रेममार्गी शाखा की प्रवृत्तियां -

  1. प्रेममार्गी शाखा के सूफी कवियों ने परमात्मा को स्त्री और जीवात्मा को पुरुष मानकर दांपत्य-प्रेम की रहस्यवादी सृष्टि की है।
  2. इस शाखा में ईश्वर की प्राप्ति का साधन ईश्वर के प्रति समर्पित-प्रेम साधना है।
  3. सूफी कवियों ने लौकिक प्रेम-कथाओं को आधार बनाकर अलौकिक ईश्वरीय प्रेम की अभिव्यक्ति की है।
  4. प्रेममार्गी - शाखा की काव्य-: - सृष्टि प्रबंधात्मक है। तथा प्रबंध रचनाओं में सर्गों की योजना फारसी भाषा की मसनवी शैली के अनुसार प्रस्तुत हुई है।
  5. सूफी कवियों ने दांपत्य प्रेम को अपने काव्य की मूल संवेदना बताया है। इसलिए उनकी रचनाओं में सौंदर्य निरूपण और शृंगारिक वर्णन प्रधान हैं। 6. प्रेमाश्रयी शाखा में शृंगार रस के संयोग और वियोग वर्णन आध्यात्मिक एवं दार्शनिक संदर्भ देते हैं और प्रेममार्ग की जटिलता भी प्रकट करते हैं।
  6. इस शाखा में प्रतीकात्मकता की प्रधानता है। प्रतिनिधि कवि जायसी कृत 'पद्मावत' में राजा रतन सेन साधक है, रानी पद्मिनी ब्रह्म है, राजा को पद्मिनी का परिचय देने वाला तोता गुरु, राघव दूत शैतान और अलाउद्दीन माया का प्रतीकार्थ देते हैं।
  7. प्रेमाश्रयी शाखा के काव्य में रहस्यवाद की सरल प्रस्तुति मिलती है।। इन कवियों के अनुसार समस्त संसार अदृश्य रहस्यमय प्रेमसूत्र में बंधा है और इस सूत्र का आश्रय लेकर जीवात्मा अपने लक्ष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।
  8. प्रेममार्गी मुसलमान कवियों ने निर्गुणसगुण के खण्डन-मण्डन की प्रवृति से दूर रहकर हिन्दू लोक-कथाओं, परम्पराओं और मान्यताओं को प्रस्तुत रके समन्वयवादी दृष्टि दी है।
  9. प्रेमाश्रयी शाखा की रचनाओं में हठयोग और योग की साधना प्रक्रिया का प्रभाव भी दिखाई देता है।
  10. इस शाखा के काव्य में शैतान की परिकल्पना भारतीय परंपरा में वर्णित माया के समरूप है।
  11. सूफी कवि नारी के साधारण लौकिक रूप को माया और असाधारण स्वरूप को ब्रह्म कहकर नारी का त्याग और वरण- दोनों प्रतिपादित करते हैं।
  12. गुरु की महिमा का प्रतिपादन इस शाखा के कवियों ने भी किया है।
  13. सूफी काव्य में कलापक्षीय सौंदर्य सहज सुलभ है। अवधी भाषा में रचित यह काव्य-परंपरा अलंकारिकता, प्रतीकात्मकता, कल्पना-वैभव, छंद योजना आदि अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।

सगुण-धारा- राम-भक्ति शाखा की प्रवृत्तियाँ -

  1. रामभक्ति शाखा के कवियों ने दशरथ नंदन श्री राम को ईश्वर के अंशा अवतार के रूप में अंकित कर उनमें निर्गुण और सगुण दोनों का समन्वय प्रस्तुत किया है।
  2. इस शाखा की समन्वयवादी प्रवृत्ति रेखांकनीय है। शैव-वैष्णव आदि सम्प्रदाय, नगरीय समाज के साथ वनवासी जनजातियों, शास्त्रीय निर्देशों और लोक मान्यताओं, गृहस्थ जीवन के साथ वैराग्य मूलक भावों आदि विविध दृष्टियों और अनेक संस्कृतियों के मध्य समन्वय का प्रयत्न इस काव्य की अप्रतिम उपलब्धि है।
  3. रामभक्ति शाखा के कवि लोक-संग्रह के प्रति आग्रहवान हैं और पारिवारिक-सामाजिक जीवन में आदर्श स्थापित करते हुए लोक- कल्याण का पथ प्रशस्त करते हैं।
  4. रामभक्त कवियों ने ज्ञान, कर्म और भक्ति के महत्व का प्रतिपादन करते हुए भक्ति को सर्वोपरि माना है तथा नवधा भक्ति को स्वीकार करते हुए राम के अतिरिक्त अन्य देवताओं की भक्ति में भी अनुरक्ति प्रकट की है।
  5. रामकाव्य के रचयिताओं ने युगीन परिस्थितियों और समस्याओं का भी यथार्थ परक चित्रण किया है तथा उनके उचित समाधान प्रस्तुत किए हैं।
  6. गुरु की महिमा का वर्णन और राम नाम का निरंतर स्मरण भी रामभक्ति शाखा के कवियों की महत्वपूर्ण विशेषता है।
  7. रामकाव्य-कृतियों का स्वरूप मुख्यतः प्रबंधात्मक है किंतु मुक्तक पदों के रूप में भी उनकी पर्याप्त प्रस्तुति मिलती है।
  8. राम-काव्य-कृतियों में श्रीराम के शील, सौंदर्य और शक्ति का रेखांकन करते हुए कवियों ने नवरसों का प्रसंगानुसार वर्णन किया है किंतु प्रधानता वीर और शांत रस को दी गई है।
  9. रामभक्ति शाखा के काव्य में अवधी और ब्रज दोनों भाषाएँ प्रयुक्त हुई हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी के साथ ब्रज, भोजपुरी आदि अन्य भाषाओं के शब्द भी प्रयोग किए हैं।
  10. प्रबंध काव्यों में दोहा-चौपाई छंद प्रमुख हैं किंतु मुक्तक काव्य-परंपरा की कृतियों में कुंडलियां, छप्पय, सवैय्या, कवित्त, बरवै आदि अन्य छंद भी प्राप्त होते हैं।
  11. इन रचनाओं में अलंकारिकता सहज सुलभ है।

सगुण धारा- कृष्णभक्ति शाखा की प्रवृत्तियाँ-

  1. श्रीकृष्ण की ईश्वर के अंशा अवतार के रूप में प्रतिष्ठा और उनकी ललित लीलाओं का गान कृष्णभक्ति शाखा की प्रमुख प्रवृत्ति है।
  2. इस शाखा के काव्य में वात्सल्य और श्रृंगार रस की प्रधानता है। श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं के वर्णन में वात्सल्य और माधुर्य भक्ति की किशोर लीलाओं के चित्रण में श्रृंगार रस की प्रस्तुति हुई है।
  3. इस शाखा के कवियों ने पुष्टि मार्गीय भक्ति का प्रतिपादन करते हुए भगवत् - अनुग्रह की प्राप्ति आवश्यक बताई है और नवधा भक्ति को इसका सर्वोत्तम साधन निरूपित किया है।
  4. कृष्ण भक्ति काव्य में प्रकृति वर्णन की प्रधानता है। इसमें प्रकृति आलम्बन, उद्दीपन आदि विविध रूपों में प्रस्तुत हुई है।
  5. कृष्ण काव्य में ज्ञान, कर्म, योग आदि के समक्ष लीलागान को प्रधानता दी गयी है। यही भक्ति की पुष्टि का सहज माध्यम है।
  6. जीव, जगत, माया, ब्रह्म आदि दार्शनिक विचारों की सरसता कृष्ण भक्ति काव्य में मुग्ध करती है।
  7. कृष्णभक्त कवियों ने निर्गुण भक्ति की तुलना में सगुण उपासना की श्रेष्ठता सिद्ध की है।
  8. कृष्णभक्ति काव्य में लोकमंगल की अपेक्षा लोकजीवन का स्वर अधिक मुखर है। उसमें ब्रज की लोक संस्कृति अपने यथार्थ परिवेश में अंकित हुई है।
  9. संगीतात्मकता कृष्णकाव्य परंपरा की प्रमुख विशेषता है। कृष्ण भक्त कवियों ने लीलापदों की रचना संगीत की राग- रागिनियों के अनुरूप की है।
  10. कृष्णकाव्य की मूल प्रवृत्ति मुक्तक काव्य की है। लीलापरक गेयप्रदों को क्रमबद्ध रूप में नियोजित करने पर प्रबंध काव्य जैसा आनंद मिलता है। अतः इस शाखा की कृतियाँ प्रबंधात्मक मुक्तक की कोटि की हैं।
  11. कृष्ण भक्ति की सृष्टि मुख्यतः ब्रजभाषा में हुई है। ब्रज के साथ राजस्थानी, पंजाबी, बुंदेली, संस्कृत आदि अन्य भाषाओं के शब्दों का भी मिश्रण हुआ है।
  12. इस शाखा का काव्य गीति-शैली में रचा गया है। संक्षिप्तता, व्यंजकता और गेयता के कारण इस काव्य परंपरा की अभिव्यंजना अत्यंत सशक्त है।
प्रमुख निर्गुण एवं सगुण कवि, भक्तिकाल की प्रवृत्तियाँ -

भक्तिकाल की दोनों धाराओं और उनकी शाखाओं में कवियों की अत्यंत समृद्ध परंपरा मिलती है। निर्गुण धारा की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवियों में कबीर, नानक, दादूदयाल, कमालदास, मलूकदास, रैदास, सुंदरदास, रज्जब, सहजोबाई आदि प्रमुख हैं। प्रेमाश्रयी शाखा के कवियों में मलिक मोहम्मद जायसी, मुल्ला दाऊद, कुतबन, मंझन, जलालुद्दीन अहमद, उस्मान, शेख नवी जटमल, कासिम शाह, नूर मोहम्मद, फाजिल शाह, कुतुबशाह आदि के नाम विशेष रूप से रेखांकनीय है।

सगुण धारा की रामभक्ति शाखा में रामानंद, तुलसीदास, अग्रदास, नाभादास, केशवदास, हृदयराम, प्राणचंद चौहान, रामचरण दास आदि अग्रणी रचनाकार हैं। कृष्णभक्ति शाखा की काव्य-सृष्टि में सूरदास, परमानंद दास, कृष्णदास, नन्ददास, छीत स्वामी, गोविंद स्वामी, कुंभनदास और चतुर्भुज दास-अष्टछाप के आठ कवियों का योगदान मुख्य है। इनके अतिरिक्त रसखान, मीराबाई, नागरीदास, चंदसखी, रतन कुंवरि, ताज आदि अन्य अनेक नाम भी रेखांकनीय हैं।।
भक्तिकाल की उपर्युक्त धाराओं और शाखाओं की विपुल काव्य-सृष्टि का अनुशीलन करने पर भक्तिकाल की सर्वमान्य सामान्य प्रवृतियाँ इस प्रकार प्रकट होती हैं-

  1. भक्तिकाल के सभी कवियों ने ईश्वरीय सत्ता में अगाध विश्वास व्यक्त करते हुए उसे ही संसार का नियामक स्वीकार किया है।
  2. ईश्वरीय सत्ता की कृपा प्राप्ति मानव जीवन का चरम लक्ष्य है। उसे प्राप्त करने के साधन भिन्न हैं किंतु लक्ष्य की समानता अभिन्न है।
  3. गुरु का महत्व समस्त भक्ति काव्य में समान रूप से स्वीकृत हुआ है। ईश्वर की कृपा प्राप्ति के लिए गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता सबने समान रूप से स्वीकार की है।
  4. ईश्वर के नाम-स्मरण पर सारे कवि एकमत हैं। सबका विश्वास है की निरंतर जप करने से भगवतकृपा की प्राप्ति सहज संभव है।
  5. सदाचार और मानवीय मूल्यों के निर्वाह का संदेश भक्तिकालीन काव्य की सामान्य प्रवृत्ति है ।
  6. जीवन को सहज, सरल और रचनात्मक पथ पर अग्रसर करने के लिए सभी कवियों में सत्संगति की आवश्यकता निरूपित की है।
  7. भक्तिकालीन कवियों ने धर्म और भक्ति के नाम पर होने वाले पाखण्डों एवं आडंबरों की तीखी आलोचना की है तथा इन्हें ईश्वर प्राप्ति की प्रमुख बाधा कहा है। उनके अनुसार निश्छल - निर्मल मन ही ईश्वर की प्राप्ति संभव है।
  8. भक्तिकाल के कवि नारी के माया रूपी भक्तिबाधक स्वरूप के निन्दक हैं किन्तु भक्ति पथ में सहायक होने वाली नारी शक्ति के समक्ष नतमस्तक मिलते हैं
  9. भक्तिकालीन काव्य भाषा, शैली, अलंकार, प्रतीक, विंब, कल्पना एवं छंद के स्तर पर अपने-अपने ढंग से कथ्य को कलात्मक-संस्पर्श प्रदान करता है। भक्तिकाव्य की उपर्युक्त सामान्य प्रवृत्तियों के कारण साहित्य के इतिहास लेखकों आचार्यों और समीक्षकों ने भक्तिकाल को स्वर्णयुग कहा है।