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Showing posts with the label समाजशास्त्र ( Sociology )

समाजशास्त्र की प्रकृति Samajshashtra ki prakrati

समाजशास्त्र की प्रकृति (NATURE OF SOCIOLOGY) वर्तमान युग विज्ञान का युग है। हर ज्ञान पटना और परिस्थितिवैज्ञपर आपने कर प्रयास किया जाता है। जो ज्ञान, पटना और परिस्थितिविज्ञान-सम् है, उसे ही सत्य माना जाता है। जब किसी भी विज्ञान की प्रकृति पर विचार किया जाता है यह होता है कि उस विज्ञान के अध्ययन की पद्धति अथवा तरीका वैज्ञानिक है? विज्ञान में जिस घटना अथवा परिस्थिति की विवेचना की जाती है, वह विज्ञान की कसौटी पर सही नहीं ? समाजशास्त्र की प्रकृति के अन्तर्गत हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि इसके अध्ययन की पद्धति अ तरीके वैज्ञानिक है अथवा नहीं? समाजशास्त्र तुलनात्मक रूप से एक नया विज्ञान है। नया विज्ञान होने के समाजशास्त्र की प्रकृति के बारे में विवाद का होना नितान्त ही स्वाभाविक है। पिछली शताब्दियों में समाजशास्त्र में जो सबसे अधिक चर्चा का विषय बना, वह था इसकी प्रकृति के बारे में समाजशास्य की प्रकृति को लेकर तीन प्रकार की विचारधाराओं पर चर्चा हुई। (1) समाजशास्त्र विज्ञान है. (2) समाजशास्त्र कला है, तथा (3) समाजशास्त्र विज्ञान तथा कला दोनों ही है। समाजशास्त्र की प्रकृति को समझे बिना ...

प्रजाति के सम्बन्ध में आधुनिक विचार (MODERN VIEWS ON RACE)

प्रजाति के सम्बन्ध में आधुनिक विचार (MODERN VIEWS ON RACE) यूनेस्को विश्व के सभी देशों का परस्पर सामूहिक विज्ञान-शिक्षा-संस्कृति संघ है। यह विश्व के समस्त मानव वर्गों के हित में कार्य करता है। यह विभिन्न प्रकार के अनुसन्धान कार्य भी करता है। यूनेस्को ने मानव प्रजाति से सम्बन्धित महत्वपूर्ण अनुसन्धान भी किये हैं। यूनेस्को (UNESCO) ने 1952 में एक सम्मेलन आयोजित किया था जिसमें विभिन्न मानवशास्त्रियां एवं प्राणिशास्त्रियों ने प्रजाति की धारणा पर विचार किया था और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि' 1. इस धरती पर बसने वाले सभी मानव एक ही जाति के सदस्य है जिन्हें मेघावी मानव (Homo Sapiens) कहते है। 2. शारीरिक लक्षणों में अन्तर पर वंशानुक्रमण तथा पर्यावरण दोनों का ही प्रभाव पड़ता है। 3. वंशानुक्रमण में अन्तर दो प्रक्रियाओं द्वारा आता है— उत्परिवर्तन (Mutation) और अन्तर्वर्ण विवाह (Cross-marriage) | 4. एक प्रजाति को दूसरी प्रजाति से शारीरिक लक्षणों के आधार पर अलग किया जा सकता है किन्तु प्रत्येक शारीरिक लक्षण कुछ मा...

सामाजिक संगठन के तत्व (samajik sangathan ke tatva)

सामाजिक संगठन के तत्व इस प्रकार मनुष्यों का स्वत और नित्य संग्रह का नाम है समान है । समाज में विभिन्न संस्थाएँ होती है । हर एक संस्था का अपना एक दीया होता है जिसके अनुसार यह सस्था अपना कार्य करती है । समाज में कुछ मूल्य होते है । इन मूल्यों को बनाये रखने के लिये समाज अपने सदस्यों को नियन्त्रण में रखता है । इस प्रकार भौतिक परिस्थितियों के साथ सामजस्य , सामाजिक मूल्यों के प्रति समान आदर और दिलचस्पी , सामाजिक संस्थाओं का अपने पद के अनुसार कार्य करना ही सामाजिक संगठन है । संक्षेप में सामाजिक संगठन के निम्नलिखित लक्षण देते है । ( 1 ) लोगों का समूह - लोगों के समूह का नाम ही सामाजिक संगठन है । समाज के ड्रामा में व्यक्ति अभिनेता है और अभिनेता के अभाव में किसी भी सामाजिक क्रिया की कल्पना नहीं की जा सकती है । ( 2 ) समूहों की अन्त : सम्बन्धिता - समाज अनेक समूहो और संस्थाओं का योग होता है । इन समूहो और संस्थाओं से सम्बन्धित व्यक्तियों में अन्त क्रियाएँ होती रहती है और यही अन्त क्रियाएँ सामाजिक संगठन के निर्माण में सहायक होती है । अन्त क्रियाओं के अभाव में सामाजिक संगठन की क...

सामाजिक संगठन में सामाजिक संरचना (samajik sangathan me samajik sanrachna)

सामाजिक संगठन में सामाजिक संरचना सामाजिक संरचना में विभिन्न संस्थाओं के पारस्परिक सम्बन्धों, सामाजिक स्थिति और कार्यों की एक निश्चित व्यवस्था रहती है । इस प्रकार आर्थिक संस्थाएँ, राजनीतिक संस्थाएँ, शिक्षा संस्थाएँ, धार्मिकसंस्थाएँ सामाजिक सम्बन्ध तथा परिवार परस्पर सम्बन्धित है । प्राचीन समाज का ढाँचा धर्म से प्रभावित था जबकि आधुनिक समाज पर राज्य का प्रभाव है । सामाजिक संगठन समाज के ढाँचे और व्यक्तियों के एकमत्य पर आधारित है । सामाजिक संरचना की परिभाषा करते हुए हैरी एम.जॉनसन ने लिखा है- " किसी भी चीज की सरचना उसके अंगो में पाए जाने वाले अपेक्षाकृत स्थायी अन्तःसम्बन्धों को कहते है, साथ ही अंग शब्द में स्वयं से कुछ - न - कुछ स्थिरता की मात्रा का समावेश होता है । कि सामाजिक व्यवस्था लोगों की अन्तःसम्बन्धित क्रियाओं से बनती है, इस कारण उसकी संरचना को इन क्रियाओं में पाई जाने वाली नियमितता की मात्रा या पुनरुत्पत्ति में ढूंढा जाना चाहिए । " प्रत्येक समाज का निर्माण अंगों द्वारा होता है, कोई भी संरचना अखण्ड नहीं हो सकती है । इन अंगों का परस्पर सम्बन्ध होता है । संरचना ...

ऐकमत्य और सामाजिक संगठन (ekmatya aur samajik sangathan)

ऐकमत्य और सामाजिक संगठन पूर्ण सामाजिक संगठन में एकमत होना आवश्यक है - इसके साथ ही सदस्यों के व्यवहारों में स्थिरता होनी चाहिए । ऐकमत्य से तात्पर्य उस स्थिति से है जब किसी समाज के अधिकतर सदस्य अपने सामान्य जीवन के महत्वपूर्ण विषयों को एक साथ अनुभव करते है । सामाजिक संगठन में समाज की सभी संस्थाएँ अपने निश्चित एवं मान्य उद्देश्यों के अनुसार कार्य करती है । ऐकमत्य के बिना सामाजिक संगठन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । जैसा कि इलियट और मैरिल ने लिखा है कि 'सामाजिक संगठन मौलिक रूप से ऐकमत्य को समस्या है ।' मौलिक विषयों पर समाज के सदस्यों में ऐकमत्य जरूरी है तभी सामाजिक संगठन स्थिर रह सकता है । वर्थ ( Worth ) ने लिखा है कि ऐसा कोई भी समाज नहीं है जिसके सदस्य सामाजिक मूल्यों एवं उद्देश्यों में भाग न लेते हो और समाज में नियमो का पालन न करते हो । जब मनुष्य अपने उद्देश्यों में एक - दूसरे से सहमत नहीं होते तो वे सब मशीनगने और पुलिस बेकार हो जाती है जो कोई तानाशाही सामाजिक शान्ति स्थापित करने के लिए एकत्र करता है ।' डी . टाकविल ने कहा था कि ' एक समाज तभी जीवित रह स...

समान गतिशील समाज में सामाजिक प्रक्रियाएँ (saman gatisheel samaj me samajik parakriyaye)

सामान गतिशील समाज में सामाजिक प्रक्रियाएँ मनुष्य सामाजिक प्राणी है, वह जीवनयापन के लिए अनेक समूते का निर्माण करता है । समाज इन सदस्यों के बीच पाये जाने वाले सम्बन्धों का नाम है । जिसे व्यक्ति आदान - प्रदान वाले सम्बन्धी के रूप में परिभाषित करते है । हर एक समाज में प्रक्रियाएं पाई जाती है, चाहे वे समाज को संगठित करने वाली हो या विघटित करने वाली सेकिसी समाज में संगठन करने वाली प्रक्रियाएँ मुख्य होती है तो किसी समाज में विपटित करने वाली शक्तियों की प्रधानता होती है । उदाहरण के लिए , भारतीय सामाजिक जीवन में संगठन करने वाली प्रक्रियाएँ अधिक पाई जाती है, क्योंकि भारतीय जन - जीवन में धर्म को प्रधानता है । इसके विपरीत पाश्चात्य देशों में विघटन करने वाली शक्तियों की प्रधानता है । सामाजिक प्रक्रियाओ का तात्पर्य अ परिवर्तनों से है जो सामूहिक जीवन में परिवर्तन के रूप में परिभाषित किये जाते हैं । पार्क और बर्जेस ने अन्त क्रियाओं को सामाजिक प्रक्रियाओं के रूप में परिभाषित किया है । प्रक्रियाओं को उसने सन्देशवाहन ( Communication ), संघर्ष ( Conflact ), प्रतिस्पर्धा ( Competition ), ...

सामाजिक नियन्त्रण ( Social Control ) samajik niyantran

सामाजिक नियन्त्रण ( Social Control ) सामाजिक नियन्त्रण को परिभाषित करते हुए मैकाइवर और पेज ने लिखा है कि सामाजिक नियन्त्रण का अर्थ उस ढंग से है जिससे सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था की एकता और स्थायित्व बने रहते है अथवा जिससे यह समान व्यवस्था एक परिवर्तनशील सन्तुलन के रूप में क्रियाशील गती है । सामाजिक नियन्त्रण ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा संगठित समाज को विघटित होने से बचाया जा सकता है । इसीलिए स्टन ने सामाजिक नियन्त्रण के महत्व को इन शब्दों में कहा है - " सामाजिक नियन्त्रण जिसे एक समूह अपने सदस्यों पर लादता है , वहाँ मानव - कार्य में कुछ हद तक स्थायित्व एवं स्थिरता आ जाती है । " समाज निरन्तर परिवर्तनशील है और इस परिवर्तन से सामाजिक संस्थाओं के द्वाँचे में परिवर्तन हो जाता है और समाज डगमगाने लगता है । ऐसी अवस्था में यह आवश्यक हो जाता है कि सामाजिक नियन्त्रण को स्वीकार किया जाए । मनुष्य ने सामाजिक व्यवहार पर नियन्त्रण को स्वीकार किया जाए । मनुष्य ने सामाजिक व्यवहार पर नियन्त्रण रखने के लिए अनेक लोकीतियाँ , रूढ़ियाँ , कानून , नियम और संस्थाओं का निर्माण...

सामाजिक संगठन और सामाजिक विघटन (samajik sangathan aur samajik vighatan)

सामाजिक संगठन और सामाजिक विघटन समाज एक जटिल सामाजिक व्यवस्था है । मैकाइवर के शब्दों में, ' यह व्यवस्था सतत् परिवर्तनशील है । ' सामाजिक व्यवस्था को परिवर्तित करने में सामाजिक प्रतिक्रियाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । सामाजिक प्रतिक्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं ( 1 ) संगठनकारी ( Associative ) ( 2 ) विघटनकारी ( Dissociative ) । संगठनकारी प्रक्रियाएँ जहाँ एक ओर समाज को संगठित करती है, वहीं दूसरी ओर विघटनकारी शक्तियों के कारण सामाजिक विघटन भी होता रहा है, इसीलिए इलियट और मेरिल ने लिखा है कि ' सामाजिक विघटन एक जटिल प्रक्रिया है । ' सामाजिक संगठन और सामाजिक विघटन में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित है । ( 1 ) सामाजिक संगठन में एकमतिता ( Unanimity ) पाई जाती है, सामाजिक विघटन में मतों की विविधता पाई जाती है । ( 2 ) सामाजिक संगठन में एकरूपता पाई जाती है, सामाजिक विषटन में जनसंख्या में विभिन्नता पाई जाती है । ( 3 ) सामाजिक संगठन परस्पर विश्वास की भावनाओं पर आधारित होता है, जबकि सामाजिक विघटन परस्पर अविश्वास पर । ( 4 ) सामाजिक संगठन में हित...

व्यवस्थापन (vyavasthapan)

व्यवस्थापन व्यवस्थापन भी सामाजिक अन्तःक्रिया का एक रूप है । यह सामाजिक प्रक्रिया प्रत्येक व्यक्ति , समूह , देश जाति और संस्कृति में पाई जाती है । दो संस्कृतियाँ मिलती हैं , एक सांस्कृतिक समूह के लोग दूसरे सांस्कृतिक समूह में जाते है , एक सांस्कृतिक समूह का कानून दूसरे सांस्कृतिक समूह पर लागू किया जाता है- इन सभी अवस्थाओं में संस्कृतियों में संघर्ष होता है , किन्तु यह संघर्ष अधिक दिनों तक स्थायी नहीं रहता है । दोनों संस्कृतियाँ एक दूसरे को तो आत्मसात नहीं कर पाती है । फिर भी वे एक - दूसरे के साथ अनुकूलन कर लेती है । वातावरण में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । यह आवश्यक नहीं है कि समस्त परिवर्तन व्यक्ति के अनुकूल ही हो । कुछ परिवर्तन प्रतिकूल भी हो सकते है । प्रतिकूल परिवर्तन से व्यक्ति शीघ्र ही सामंजस्य नहीं कर पाता , इसलिए संघर्ष करता है । संघर्ष के बावजूद भी व्यक्ति वातावरण को अपनी इच्छानुसार नहीं बदल सकता है । फलतः धीरे - धीरे वातावरण के साथ समायोजन कर लेता है । समायोजन की इसी प्रक्रिया को व्यवस्थापन कहते हैं । इसी प्रकार प्रेम और द्वेष मानव मन की दो अवस्थाएँ है । मन में...

सामाजिक संरचना एवं प्रकार्य : पारसन्स ( samajik sanrachna evan prakarya parsans)

सामाजिक संरचना एवं प्रकार्य : पारसन्स पारसन्स के विचार - पारसन्स ने सामाजिक संरचना को विशिष्ट क्रमबद्धता के रूप में परिभाषित किया है । आपने विभिन्न प्रकार की समितियों, संस्थाओं एवं सामाजिक प्रतिमानों को सामाजिक संरचना कीमहत्वपूर्ण इकाई माना है । यह इकाइयाँ अलग - अलग रहकर सामाजिक संरचना का निर्माण नहीं करती है. अपितु इनमे पारस्परिक संबंध पाया जाता है । ये पारम्परिक संबंध ही एक निश्चित प्रतिमान का निर्माण करते है । आपके अनुसार, "सामाजिक संरचना वह शब्द है जो परस्पर संबंधित संस्थाओ, मामितियो सामाजिक प्रतिमानों और समूह में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा ग्रहण की जाने वाली प्रस्थितियों और भूमिकाओं को विशिष्ट क्रमबद्धता के लिए प्रयुक्त की जाती है ।" आपके अनुसार, सामाजिक संरचना के अन्तर्गत प्रत्येक सदस्य के कुछ पूर्व निश्चित पद एवं कार्य होते है और ये पद तथा कार्य संस्थाओ, रूदियो तथा रीति - रिवाजों द्वारा निर्धारित होते है । पारसन्स ने सामाजिक संरचना की अवधारणा को अमूर्त अवधारणा के रूप में प्रस्तुत किया है । आपने संस्थाओ, सामाजिक प्रतिमानो, एजेन्सियो, पदों एवं कार्यों का उल्...

सामाजिक संरचना की परिभाषाएँ (samajik sanrachna ki paribhasha)

सामाजिक संरचना की परिभाषाएँ विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सामाजिक संरचना की अवधारणा को स्पष्ट किया है । यहाँ सामाजिक संरचना की कुछ परिभाषाएँ दी जा रही है, जो निम्नलिखित हैं । ( 1 ) कार्ल मैनहीम के अनुसार - ”सामाजिक संरचना अन्तः क्रियात्मक सामाजिक शक्तियों का जाल है, जिससे विभिन्न प्रकार के अवलोकन और विचार पद्धतियों का जन्म हुआ है ।” ( 2 ) पारसन्स के अनुसार - ”सामाजिक संरचना परस्पर संबंधित संस्थाओं, एजेन्सियों, सामाजिक प्रतिमानों और समूह के प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किये गये पदों और कार्यों की विशिष्ट व्यवस्था को कहते हैं ।” ( 3 ) गिन्सवर्ग के अनुसार - ”सामाजिक संरचना सामाजिक संगठन के प्रमुख स्वरूप अर्थात् समितियों, समूहों तथा संस्थाओं के प्रकार एवं इनकी सम्पूर्ण जटिलता, जिनसे कि समाज का निर्माण होता है, संबंधित है ।” ( 4 ) व्राउन के अनुसार - ”मानव सामाजिक संबंधों के जटिल जाल के द्वारा संबंधित है । मैं सामाजिक संरचना के इस वास्तविक अस्तित्व रखने वाले संबंधों के जाल को संबोधित करता हूँ ।” ( 5 ) इग्गन के अनुसार - ”अन्त वैयक्तिक संबंध सामाजिक संरचना के अंग है, जो कि व्यक्तियो...

सामाजिक संरचना की विशेषताएँ (samajik sanrachna ki visheshta)

सामाजिक संरचना की विशेषताएँ सामाजिक संरचना की पीछे जो परिभाषाएँ दी गयी है न परिभाषाओं के आधार पर इसकी प्रमुख विशेषताओं को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है - ( 1 ) सामाजिक संरचना का निर्माण सामाजिक प्रक्रियाओं से होता है । समाज में पायी जाने वाली सम्पूर्ण सामाजिक प्रक्रियाओं को सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । ( A ) सहयोगी सामाजिक प्रक्रियाएँ - ये समाज की वे प्रक्रियाएँ है जो सहयोगात्मक संबंधों की स्थापना समाज में करती है । इनके अन्तर्गत प्रमुख रूप से निम्न प्रकियाएँ आती है ( 1 ) सहयोग, ( ii ) आत्मसात, ( iii ) व्यवस्थापन, और ( iv ) अनुकूलन । ( B ) असहयोगी सामाजिक प्रक्रियाएँ - ये समाज की वे प्रक्रियाएँ है जो सामाजिक प्राणियों के बीच असहयोगात्मक संबंधों को विकसित करती है । ये प्रक्रियाएँ निम्नलिखित है ( i ) प्रतिस्पर्धा, ( ii ) संघर्ष और ( iii ) प्रतिकूलता । ( 2 ) सामाजिक संरचना में सामाजिक प्रक्रियाओं में संबंधित व्यक्तियों या कर्ताओं की अन्तःक्रियाएँ सम्मिलित रहती है । ( 3 ) सामाजिक संरचना समाज की अत्यंत ही विस्तृत और जटिल व्यवस्था ...

सामाजिक संरचना के प्रमुख प्रकार (samajik sanrachna ke pramukh prakar)

सामाजिक संरचना के प्रमुख प्रकार प्रसिद्ध समाजशास्त्री टालकट पारसन्स का कहना है कि सामाजिक मूल्यों के आधार पर समाज की संरचना का निर्माण होता है । इस दृष्टि से पारसन्स ने सामाजिक संरचना के प्रमुख प्रकारों को निम्नलिखित चार भागों के विभाजित किया है । ( 1 ) सार्वभौमिक अर्जित संरचना - पारसन्स के अनुसार कुछ ऐसे सामाजिक मूल्य होते हैं, जो सार्वभौमिक होते है । ये मूल्य सभी कालो और समाजों में समान रूप से पाये जाते हैं । ये सभी व्यक्तियों पर सार्वभौमिक रूप से लागू होते है । उदाहरण के लिए, कुशलता, क्षमता और बुद्धिमत्ता सार्वभौमिकता के गुण है, जो सभी देशों और कालो में समान रूप से लागू होते है । इस प्रकार सामाजिक सरंचना का निर्माण निम्न दो गुणों के द्वारा होता है ( a ) सार्वभौमिक मूल्य, और ( b ) अर्जित मूल्य । सार्वभौमिक मूल्य के अन्तर्गत वर्ग, रक्त - संबंध, प्रजाति, आदि तत्वों को सम्मिलित किया जाता है । इनकी सहायता से समाज की संरचना निश्चित होती है । इस प्रकार की संरचना का स्वरूप सार्वभौमिक होता है । इसी प्रकार अर्जित सामाजिक मूल्य वे हैं, जो सदस्यो या समूहो द्वारा अर्जित या प्राप्त कि...