सामाजिक संगठन में सामाजिक संरचना (samajik sangathan me samajik sanrachna)


सामाजिक संगठन में सामाजिक संरचना

सामाजिक संरचना में विभिन्न संस्थाओं के पारस्परिक सम्बन्धों, सामाजिक स्थिति और कार्यों की एक निश्चित व्यवस्था रहती है । इस प्रकार आर्थिक संस्थाएँ, राजनीतिक संस्थाएँ, शिक्षा संस्थाएँ, धार्मिकसंस्थाएँ सामाजिक सम्बन्ध तथा परिवार परस्पर सम्बन्धित है । प्राचीन समाज का ढाँचा धर्म से प्रभावित था जबकि आधुनिक समाज पर राज्य का प्रभाव है । सामाजिक संगठन समाज के ढाँचे और व्यक्तियों के एकमत्य पर आधारित है । सामाजिक संरचना की परिभाषा करते हुए हैरी एम.जॉनसन ने लिखा है- " किसी भी चीज की सरचना उसके अंगो में पाए जाने वाले अपेक्षाकृत स्थायी अन्तःसम्बन्धों को कहते है, साथ ही अंग शब्द में स्वयं से कुछ - न - कुछ स्थिरता की मात्रा का समावेश होता है । कि सामाजिक व्यवस्था लोगों की अन्तःसम्बन्धित क्रियाओं से बनती है, इस कारण उसकी संरचना को इन क्रियाओं में पाई जाने वाली नियमितता की मात्रा या पुनरुत्पत्ति में ढूंढा जाना चाहिए । " प्रत्येक समाज का निर्माण अंगों द्वारा होता है, कोई भी संरचना अखण्ड नहीं हो सकती है । इन अंगों का परस्पर सम्बन्ध होता है । संरचना समाज के विभिन्न अगों में पाए जाने वाले अन्त सम्बन्धों के प्रतिमान को कहते है ।

पारसन्स सामाजिक संरचना एक विशिष्ट क्रमबद्धता है । संगठन इकाइयों का योग है । अनुसार ये इकाइयाँ है- संस्थाएँ, एजेन्सियाँ तथा सामाजिक प्रतिमान । उपर्युक्त इकाइयों से समाज का निर्माण होता है इन इकाइयों में पारस्परिक सम्बन्ध होता है । सामाजिक संरचना के अन्तर्गत प्रत्येक सदस्य के कुछ निश्चित पद और कार्य होते हैं । सामाजिक संरचना की परिभाषा पारसन्स के शब्दों में - " सामाजिक संरचना एक ऐसा शब्द है जिसका प्रयोग अंतः सम्बन्धित संस्थाओ, विधियों, सामाजिक नियमों और उन पदो व कार्यों के लिए किया जाता है जो व्यक्ति अपने समूह में स्वीकार करता है । " इस प्रकार सामाजिक संरचना का पहला तत्व है - संस्था । संस्था मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक समाज - स्वीकृत विशिष्ट व्यवहार प्रतिमान को कहते है । उदाहरण के लिए परिवार का जन्म पारिवारिक आवश्यकताओं तथा राज्य का जन्म राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ । संस्था के पश्चात् सामाजिक संरचना के अन्य तत्व पद ( Status ) और कार्य ( Role ) को समझ लेना आवश्यक है

( 1 ) पद ( Status ) - लिण्टन के अनुसार, " वह स्थान, जिसे एक विशेष व्यवस्था में कोई व्यक्ति एक समय प्राप्त करता है, उस व्यवस्था के अन्तर्गत वह उस व्यक्ति का पद कहलाएगा । " इलियट और मैरिल ने पद की परिभाषा करते हुए लिखा है कि " व्यक्ति का पद वह स्थिति है जो वह अपने लिंग, आयु, जन्म, वियाह, शारीरिक गुण, निष्पति तथा सौपे हुए कार्यों आदि के कारण धारण करता है । " ऑगबर्न और निमकॉफ ने ' पद ' की बहुत ही सुन्दर परिभाषा दी है - " एक व्यक्ति की स्थिति उसका समूह में स्थान और दूसरे के सम्बन्ध में उसका क्रम है । " उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि पद वह स्थान है जिसे व्यक्ति समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है । जैसे पुत्र का पद, पिता - माता का पद या अन्य अर्जित पद । समाज में पद का अत्यधिक महत्व होता है । पद के द्वारा ही व्यक्ति को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है, चाहे वह प्रतिष्ठा सामाजिक सेवा के लिए हो या व्यक्तिगत गुणों के लिए । मैकाइवर ने पद की महता को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि " स्थिति वह सामाजिक पद है जोकि अपने रखने वाले के लिए उसके व्यक्तिगत गुणों अथवा सामाजिक सेवा के अतिरिक्त आदर, प्रतिष्ठा तथा प्रभाव की कुछ मात्रा निश्चित करती है । इतना ही नहीं, वह आगे कहते है कि " यह पद की भावना ही है जो आर्थिक, राजनीतिक अथवा धार्मिक शक्ति और जीवन के विशेष ढंगों और उनके अनुरूप कार्यों से जीवित है तथा वर्ग को वर्ग से अलग करती है, प्रत्येक को बांधे रखती है और एक सम्पूर्ण समाज का स्तरण करती है । " प्रतिष्ठा, जो पद के अनुसार मिलती है, का सामाजिक जीवन में अत्यधिक महत्व है । इसी से सुयोग्य पदों को भरते समय व्यक्ति की योग्यता की ओर ध्यान दिया जाता है । पद के अभाव में सामाजिक वर्गों की कुछ भी महना नहीं है । प्रत्येक समाज मे, चाहे वह आदमी हो या आधुनिक, पद का महत्व किसी भी हालत में कम नहीं है । पद ही ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा सामाजिक असमानता को जन्म मिलता है । वैसे रूसो के अनुसार, “ मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुआ है, " किन्तु यह स्वतन्त्रता सीमित मात्रा में ही उपयुक्त है । डेविस ने भी सामाजिक स्थिति के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि " इस प्रकार सामाजिक असमानता एक अचेतन रूप से विकसितविधि है जिसके द्वारा समाज यह निश्चित करता है कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण पद जान - बूझकर सबसे अधिक योग्य व्यक्तियों से भरे जाएँ । अतः प्रत्येक समाज में, चाहे वह कितना ही सरल अथवा जटिल हो, प्रतिष्ठा और आदर के सम्बन्ध में व्यक्तियों में भेद करना ही चाहिए । "

पद दो प्रकार के होते हैं - प्रदत ( Ascribed ) और अर्जित ( Achieved ) । प्रदत्त पद व्यक्ति को अपने माता-पिता, आयु-समूह या किसी समुदाय के सदस्य की स्थिति के कारण उसको समाज प्रदान करता है । पुरुष अथवा स्त्री के रूप में किसी व्यक्ति का पद जन्म के कारण होता है और उसमें परिवर्तन असम्भव होता है । दूसरे प्रकार के पद अर्जित ( Achieved ) किए जाते है । उदाहरण के लिए, अगर कोई गरीब व्यक्ति अपने प्रयत्नों से पूँजीपति ( Capitalist ) का पद प्राप्त कर लेता है तो उसका यह पद पर अर्जित किया हुआ है । इसी प्रकार कोई व्यक्ति अछूत, जिसे समाज में निम्न स्थान प्राप्त है अगर अपने प्रयत्नों से अध्यापक या अन्य उच्च पद प्राप्त कर लेता है तो उसका यह पद अर्जित है । बीसवीं शताब्दी जीवन के हर एक क्षेत्र में परिवर्तन लेकर आई । प्रदत्त पदों का महत्व इस युग में कुछ भी नहीं है, इसे एक प्रकार की रूढ़िवादिता कहा जाता है । आज अर्जित पदों की मात्रा में वृद्धि हो रही है क्योंकि प्रजातन्त्र ( Democracy ) इसके लिए वातावरण प्रदान कर रहा है

( 2 ) कार्य ( Role ) - यूटर ( Reuter ) के अनुसार किसी भी सामाजिक स्थिति अथवा समूह में व्यक्ति के द्वारा अदा किए गए पार्ट के रूप में परिभाषित की जा सकती है । लिन्टन ने पद के गत्यात्मक पहलू के रूप में भूमिका को परिभाषित किया है । वास्तव में कार्य पद के बाद की स्थिति है ।, पहले व्यक्ति को पद प्राप्त होते है और फिर उस व्यक्ति को उस पद के अनुसार कार्य करना पड़ता है, किन्तु अर्जित पदों के लिए व्यक्ति को पहले प्रयास करना पड़ता है । इलियट और मैरिल ने भूमिका या कार्य ( Role ) की परिभाषा करते हुए लिखा है कि " भूमिका वह पार्ट है जो व्यक्ति अपने पद के फलस्वरूप अदा करता है " उपर्युक्त विवेचन से पद और भूमिका की धारणा स्पष्ट हो जाती है । अब, सामाजिक संरचना में पद और भूमिकाओं का क्या महत्व है ? प्रत्येक व्यक्ति का एक पद होता है क्योंकि वह अपने माता - पिता की सन्तान है, पुरुष अथवा स्त्री है, बालक, युवक अथवा वृद्ध है, विवाहित अथवा अविवाहित है, नेता या अनुयायी है, अध्यापक अथवा विद्यार्थी है, शिक्षित अथवा अशिक्षित है । पुरुष का पद स्त्री से बिल्कुल भिन्न होता है और इसलिए उनके कार्यों में भी भिन्नता रहती है । आयु के आधार पर लड़कों का अलग पद है, वयस्कों का अलग और वृद्धों का बिल्कुल ही अलग । इन पदों की भिन्नता के कारण इनके कार्यों में भी भिन्नता रहती है । लड़की का पद माँ से भिन्न होता है और वह उसी के अनुसार कार्य करती है । इसकी प्रकार समूह प्रत्येक पद के साथ एक विशेष कार्य को भी प्रदान करता है । समूह के सदस्यों को, अपने पद और कार्यों को दृष्टि में रखते हुए, उसी प्रकार का व्यवहार करना चाहिए, जैसी कि उनसे आशा की जाती है, अन्यथा सामाजिक संगठन विश्खलित हो जाता है ।

संक्षेप में, समाज विभिन्न इकाइयों का योग है, इकाइयों का अर्थ संस्थाओं और समूहों से है । प्रत्येक संस्था या समूह का एक सामाजिक ढाँचा होता है, उसके सदस्यों को पद प्रदान किए जाते है और उनसे उस पद के अनुसार कार्य करने की आशा की जाती है । इस प्रकार यदि समाज की समस्त संस्थाएँ अपने कार्यों को ठीक तरह से पूरा कर रही है और साथ ही सदस्य अपने पद के अनुसार भूमिका अदा कर रहे है तो समाज का ढाँचा संगठित कहा जा सकता है । सरचनात्मक संगठन सामाजिक संगठन की आधाशिला है । यदि संरचनात्मक संगठन में किसी प्रकार का विकार आ जाता है तो सामाजिक संगठन का स्थान सामाजिक विपटन ले लेता है, क्योकि सामाजिक संरचना का तात्पर्य ही सामाजिक संस्थाओं के कार्यों और पदों में संतुलन से है । जैसा कि पारसन्स ( Parsons ) ने लिखा है कि "सामाजिक संरचना अन्तः सम्बन्धित संस्थाओं, एजेन्सियों और सामाजिक प्रतिमानों तथा समूह में उसके प्रत्येक सदस्य द्वारा प्राप्त पदों और भूमिकाओं की विशिष्ट व्यवस्था को कहा जाता है ।"
परिवर्तन निरन्तर और सार्वभौमिक है । मानव आज जिस रूप में है वह परिवर्तन का ही परिणाम है । सामाजिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप व्यक्ति के पद और कार्यों में भीषण परिवर्तन हो रहे हैं । वैज्ञानिक आविष्कारों ने समाज के ढाँचे में भीषण परिवर्तन कर दिया है । परिवार के स्वरूप और कार्यों में निरन्तर परिवर्तन हो रहे है । आज स्वी सिर्फ मकान ही चहारदीवारी में ही नहीं घिरी रह गई है, उसे बराबर के अधिकार प्राप्त है और राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक कार्यों में समाज रूप से भाग ले सकती है । आर्थिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप लाखो विवाहित स्त्रियों को पत्नियों और माताओं का कार्य करने के साथ-साथ रोटी-रोजी का कार्य भी करना पड़ता है ।


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