सामाजिक संगठन के तत्व (samajik sangathan ke tatva)


सामाजिक संगठन के तत्व

इस प्रकार मनुष्यों का स्वत और नित्य संग्रह का नाम है समान है । समाज में विभिन्न संस्थाएँ होती है । हर एक संस्था का अपना एक दीया होता है जिसके अनुसार यह सस्था अपना कार्य करती है । समाज में कुछ मूल्य होते है । इन मूल्यों को बनाये रखने के लिये समाज अपने सदस्यों को नियन्त्रण में रखता है । इस प्रकार भौतिक परिस्थितियों के साथ सामजस्य , सामाजिक मूल्यों के प्रति समान आदर और दिलचस्पी , सामाजिक संस्थाओं का अपने पद के अनुसार कार्य करना ही सामाजिक संगठन है । संक्षेप में सामाजिक संगठन के निम्नलिखित लक्षण देते है ।
( 1 ) लोगों का समूह - लोगों के समूह का नाम ही सामाजिक संगठन है । समाज के ड्रामा में व्यक्ति अभिनेता है और अभिनेता के अभाव में किसी भी सामाजिक क्रिया की कल्पना नहीं की जा सकती है ।

( 2 ) समूहों की अन्त : सम्बन्धिता - समाज अनेक समूहो और संस्थाओं का योग होता है । इन समूहो और संस्थाओं से सम्बन्धित व्यक्तियों में अन्त क्रियाएँ होती रहती है और यही अन्त क्रियाएँ सामाजिक संगठन के निर्माण में सहायक होती है । अन्त क्रियाओं के अभाव में सामाजिक संगठन की कल्पना नहीं की जा सकती है ।

( 3 ) सदस्यों में एकमत ( Consenous ) - इसका तात्पर्य उस स्थिति से है जब किसी समाज के अधिकतर सदस्य अपने सामान्य जीवन के महत्वपूर्ण विषयों को एक साथ अनुभव करते है सामाजिक संगठन में समाज की सभी संस्थाएं मान्यता प्राप्त उद्देश्यों के अनुसार कार्य करती है । एकमत के अभाव में सामाजिक संगठन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । जब मनुष्य अपने उद्देश्यों में एक - दूसरे से सहमत नहीं होते तो सभी मशीनगने और पुलिस बेकार हो जाते है जोकि तानाशाह सामाजिक शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने के लिए एका करता है । एकमत समाज का आन्तरिक संगठन है और इसका सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा से है । अत : इसे बलपूर्वक स्थापित नहीं किया जा सकता है । एकमत का तात्पर्य सभी सदस्यो के मतों से नहीं है , क्योंकि सामाजिक महत्व के विषयों पर पूर्ण एकमतता नहीं हो सकती है , क्योंकि समाज में अनेक प्रकार के व्यक्ति और वर्ग है और इन्हीं के अनुसार ही व्यक्ति को कार्य करना पड़ता है । समाज गतिशील है और इस गतिशीलता के कारण समाज के मूल्यों और आदरों में परिवर्तन होता रहता है । इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप सामाजिक संगठन विपटन की ओर मुड़ जाता है । एक सामाजिक संगठन तभी जीवित रह सकता है जबकि व्यक्ति महत्वपूर्ण विषयों पर एकमत रखते हो ।

( 4 ) स्थिति और कार्यों को स्वीकार करने को तत्परता - समाज का एक निश्चित डाँचा होता है । इस ट्रीचे का निर्माण विभिन्न संस्थाओं और समूहों के योग से होता है । प्रत्येक संस्था का एक निश्चित ढांचा होता है और सामाजिक स्थिति और कार्यों की निश्चित व्यवस्था रहती है । संस्था मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनाई जाती है . उदाहरण के लिए परिवार परिवार का जन्म मनुष्य की मूलभूत पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ । इसी प्रकार राज्य की जन्म राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ । सामाजिक संस्थमा को समझने के लिए स्थिति ' और ' कार्य ' को समझना आवश्यक है । स्थिति - स्थिति या पद वह स्थान है जिसे एक विशेष व्यवस्था में कोई व्यक्ति एक समय प्राप्त करता है । उस व्यवस्था के अन्तर्गत वह स्थान उस व्यक्ति की स्थिति या पद कहलाता है । प्रत्येक व्यक्ति की एक स्थिति या पद होता है क्योंकि वह समाज का एक सदस्य होता है , जैसे पुत्र का पद , पिता कापद , गुरु का पद और शिष्य का पद आदि । समाज में स्थिति या पद का अत्यधिक महत्व होता है । इसी के आधार पर व्यक्ति को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है , चाहे यह प्रतिष्य सामाजिक सेवाओं के लिये हो या व्यक्तिगत गुणों के लिए । प्रतिष्ठा , जो व्यक्ति की स्थिति के अनुसार मिलती है , का सामाजिक जीवन में अत्यधिक महत्व है । पद के अभाव में सामाजिक वर्गों का कोई भी महत्व नहीं है ।
पद दो प्रकार के होते है- प्रदत्त और अर्जित ।
( a ) प्रदन पद व्यक्ति को अपने माता - पिता , आयु - समूह , लिंग - भेद या किसी समुदाय का सदस्य होने के नाते प्राप्त होता है । जैसे पुरुष का पद और स्त्री का पद । इन पदों में परिवर्तन सम्भव नहीं है
( b ) दूसरे प्रकार के पद अर्जित होते है । इस प्रकार के पद व्यक्ति की योग्यता , क्षमता और परिखम के आधार पर प्राप्त होते हैं । जैसे पूँजीपति का पद । आधुनिक युग में अर्जित पदों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है और इन्ही पदों को महत्व भी दिया जा रहा है । कार्य - कार्य पद के बाद की स्थिति है । पहले व्यक्ति पद प्राप्त करता है और फिर इसी पद के अनुसार कार्य करता है । इसीलिये कल जाता है कि " कार्य वह पार्ट है जो व्यक्ति अपने प्रत्येक पद के फलस्वरूप अदा करता है । " सामाजिक संरचना में प्रत्येक व्यक्ति का एक पद या स्थिति होती है , चाहे यह अर्जित हो या प्रदत्त । एक व्यक्ति की स्थिति दूसरे व्यक्ति से भिन्न होती है , जैसे स्त्री - पुरुष , अध्यापक विद्यार्थी , विवाहित - अविवाहित तथा नेता - अनुयायी आदि । इन पदों की भिन्नता के कारण इनके कार्यों में भी भिन्नता रहती है । प्रत्येक समूह अपने सदस्यों को पद के अनुसार कार्य प्रदान करता है । साथ ही इस पद के अनुसार कार्य करने की आशा की आती है अब यदि समाज की समस्त संस्थाएँ अपने कार्यों को ठीक तरह से पूरा कर रही है और साथ ही समस्त सदस्य अपनी स्थिति के अनुसार कार्य कर रहे है तो समाज का ढाँचा संगठित कहा जा सकता है संरचनात्मक संगठन ही सामाजिक संगठन की आधारशिला है । जैसे ही सामाजिक संरचना में विकार आता है , सामाजिक संगठन विघटन की ओर मुड़ जाता है ।

( 5 ) सदस्यों के कार्यों पर समाज का नियन्त्रण - सामाजिक नियंत्रण के द्वारा सामाजिक व्यवस्था की एकता और स्थायित्व बने रहते है । सामाजिक नियन्त्रण ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा सामाजिक विघटन को रोका जा सकता है समाज निरन्तर परिवर्तनशील है और इस परिवर्तनशीलता के कारण समाज के ढांचे में परिवर्तन होता रहता है सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन होने से समाज का ढाँचा डमगमाने लगता है । ऐसी व्यवस्था में सामाजिक अवस्था को बनाये रखने के लिए समाज के सदस्यों की क्रियाओं पर नियन्त्रण लगाना आवश्यक हो जाता है ।
इसे दो भागों में बाँटा जा सकता है ( 1 ) औपचारिक ( 2 ) अनौपचारिक ।
( a ) औपचारिक सामाजिक नियन्त्रण अधिक स्पष्ट और विशेषीकृत होते है । ये जटिल समाजों को नियन्त्रित करने के महत्वपूर्ण साधन है ; जैसे कानून ; पुलिस , जेल आदि । सामाजिक संगठन को बनाए रखने के लिए इनका एक निश्चित सीमा में रहकर कार्य करना आवश्यक होता है ।
( b ) अनौपचारिक सामाजिक नियन्त्रण यद्यपि अधिक स्पष्ट नहीं होते है फिर भी समाज को नियंत्रित करने में इनका स्थान मौलिक है । इसके अन्तर्गत लोक - रीतियो , रूदियो , प्रथाओं , परम्पराओं और संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है । सामाजिक संगठन में इन अनौपचारिक विधियों का महत्वपूर्ण स्थान है । इन्हीं के द्वारा व्यक्तियों के व्यवहारों को स्थायित्व मिलता है । अनौपचारिक विधियों का सम्बन्ध व्यक्ति की आत्मा से होता है और समाज के सभी सदस्य इनका पालन अपने - आप करते है ।


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