मृदा (mrida : mrida ke banavat , prakar , vitran aur uska sanrakshan)


मृदा : मृदा की बनावट , प्रकार , वितरण और उसका संरक्षण

मृदा किसान की अमूल्य सम्पदा है हमारे देश के आर्थिक विकास का प्रमुख आधार मिट्टी या मृदा है । अमरीकी मिट्टी विशेषज्ञ डॉ बैनेट के अनुसार " मृदा भूपृष्ठ पर मिलने वाले असंगठित पदार्थों की वह ऊपरी परत है जो मूल चट्टानों अथवा वनस्पति के योग से बनती है । " धरातल के अधिकतर भाग पर मृदा पाई जाती है । यह मूल चट्टानों और जैव पदार्थों का सम्मिश्रण है , जिसमें उपयुक्त जलवायु होने पर नाना प्रकार की वनस्पतियाँ उगती है । मानव जीवन में मृदा का महत्व बहुत अधिक है , विशेषकर किसानों के लिए । समस्त मानव जीवन मिट्टी पर निर्भर करता है समस्त प्राणियों का भोजन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिट्टी से प्राप्त होता है । हमारे वस्त्रों के निर्माण में प्रयुक्त कपास , रेशम , जूट व ऊन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमें मिट्टी से ही मिलते हैं जैसे- भेड़ मिट्टी पर उगी घास खाती है और हमें ऊन देती है । रेशम के कीड़े वनस्पति पर जीते हैं और वनस्पति मिट्टी पर उगती है । भारत में लाखों घर मिट्टी के बने हुए हैं । हमारा पशुपालन उद्योग , कृषि और वनोद्योग मिट्टी पर आधारित हैं । इस प्रकार मिट्टी हमारे जीवन का प्रमुख आधार है । विलकॉक्स के अनुसार " मानव - सभ्यता का इतिहास मिट्टी का इतिहास है और प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा मिट्टी से ही प्रारम्भ होती है । "

मृदा का निर्माण -

मृदा के निर्माण की प्रक्रिया बहुत धीमी है , मृदा की एक से.मी. परत के निर्माण में सैकड़ों वर्ष लग जाते है । इसकी 272 से.मी. की पतली परत के निर्माण में 1000 वर्षों से अधिक का समय लग सकता है । मृदा निर्माण के लिए समतल भूमि सबसे अच्छी होती है , क्योंकि इस पर मृदा के निर्माण में कम से कम बाधाएँ होती हैं ।

मृदा

मृदा के निर्माण में सहयोग देने वाले अनेक कारक हैं -

जैसे- मूल चट्टान तथा भूभाग का उच्चावच , हजारों वर्षों तक प्रभाव डालने वाली जलवायु की दशाएँ , जिनसे शैलों का अपक्षय होता है , पेड़ - पौधे और जीव - जन्तुओं व इनके अवशेष । मृदा परिच्छेदिका - पूर्ण विकसित मृदाओं के लम्बवत परिच्छेद ( कटान ) में गठन , रंग और परतें एक 3के ऊपर एक बिछी होती हैं मृदा की परतों के विन्यास को मृदा परिच्छेदिका कहते हैं ( क ) ऊपरी परत को ऊपरी मृदा , ( ख ) दूसरी परत को उप मृदा , ( ग ) तीसरी परत को अपक्षयित मूल चट्टानी पदार्थ तथा ( घ ) चौथी परत में मूल चट्टानें होती हैं , जैसा कि चित्र में दर्शाया गया है । ऊपरी परत की ऊपरी मृदा ही वास्तविक मृदा की परत है । इसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता इसमें हमस तथा जैव पदार्थ का पाया जाना है । सबसे ऊपर ह्यूमस तथा उसके नीचे जैव तत्वों की प्रधानता होती है । दूसरी परत में उपमृदा होती है , जिसमें चट्टानों के टुकड़े , बालू , गाद और चिकनी मिट्टी होती है , तीसरी परत में अपक्षयित मूल चट्टानी पदार्थ तथा चौथी परत में मूल चट्टानी पदार्थ होते हैं ।

मृदा के प्रकार व वितरण -

मृदा का वर्गीकरण अनेक विद्वानों ने किया है । भारत अपनी धरातलीय संरचना , वनस्पति एवं जलवायु की विविधता के लिए जाना जाता है । इस कारण भारत में मृदा को निम्नांकित रूप से वर्गीकृत किया जा सकता है

मृदा प्रकार

जलोढ़ मिट्टी -

इसे काँप , दोमट , कछारी या चीका मिट्टी कहा जाता है । यह मिट्टी हल्के भूरे रंग की होती है । खुदाई करने पर यह मिट्टी 490 मीटर की गहराई तक पाई गई है । इस मिट्टी में नेत्रजन , फास्फोरस और वनस्पति अंशों की कमी है , परन्तु पोटाश और चूना पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है । भारत में यह मिट्टी हिमालय से निकलने वाली तीन बड़ी नदियों - सतलुज , गंगा एवं ब्रह्मपुत्र और उनकी सहायक नदियों- द्वारा बहाकर लाई गई काँप मिट्टी से निर्मित हुई है । मिट्टी के इन बारीक कणों को जलोढ़क कहते हैं । इस मिट्टी में विभिन्न मात्रा में रेत , गाद तथा मृत्तिका ( चीका मिट्टी ) मिली होती है । भारत के काफी बड़े क्षेत्र में पाई जाने के कारण यह मिट्टी बहुत महत्वपूर्ण है । इसके अन्तर्गत देश का 40 प्रतिशत भाग सम्मिलित है । यह मिट्टी हिमालय से निकलने वाली सतलुज , गंगा तथा ब्रह्मपुत्र और उनकी सहायक नदियों की द्रोणी में स्थित पंजाब , हरियाणा , उत्तरप्रदेश , उत्तराखण्ड , बिहार , पश्चिमी बंगाल , असम , मेघालय तथा उत्तरी पूर्वी राजस्थान में मिलती है । इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत में गोदावरी , कृष्णा , कावेरी नदियों के डेल्टाई भागों , पूर्वी एवं पश्चिमी समुद्रतटीय मैदानों तथा नर्मदा और ताप्ती नदियों की घाटियों में भी सामान्य रूप से मिलती है ।

काली या रेगड़ मिट्टी -

इस मिट्टी को रेगड़ या कपास वाली काली मिट्टी भी कहते है । इसका रंग गहरा काला और कर्णो की बनावट बारीक व घनी होती है , इसमें अधिक देर तक जल एवं नमी ठहर सकती है । इस मिट्टी में चूना , पोटाश , मैग्नीशियम , एल्युमिनियम तथा लोहा पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है किन्तु फास्फोरस नेत्रजन तथा जीवांश का अभाव होता है इसमें रासायनिक तत्वों की मात्रा अधिक होती है । सूख जाने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं । इन दरारों से इसके वायु मिश्रण में सहायता मिलती है । इसे स्वतः जुताई वाली मिट्टी भी कहा जाता है । भारत में यह मिट्टी गुजरात से अमरकंटक तक और बेलगाँव से गुना तक पाई जाती है । यह मिट्टी महाराष्ट्र के विदर्भ , खानदेश एवं मराठवाड़ा , मध्यप्रदेश में , उड़ीसा के दक्षिणी भाग , कर्नाटक के उत्तरी जिलों , आन्ध्रप्रदेश के दक्षिणी और तटवर्ती भाग , तमिलनाडु के भाग तथा राजस्थान के कुछ जिलों तथा उत्तरप्रदेश के बुन्देलखण्ड संभाग में मिलती है । यह मिट्टी कपास , दालें आदि के लिए अत्यधिक उपयुक्त है ।

लाल मिट्टी -

यह मिट्टी शुष्क और तर जलवायु में प्राचीन रवेदार और परिवर्तित चट्टानों के टूट - फूट से बनती है । ताप्ती नदी घाटी में पहाड़ियों के दालों पर लगातार अधिक गर्मी पड़ने से चट्टानों के टूटने पर उसमें मिला हुआ लोहा मिट्टी में फैल जाता है जिससे इसका रंग लाल हो गया है । कही - कही इसका रंग भूरा , चाकलेटी , पीला अथवा काला भी है । अनेक प्रकार की चट्टानों से बनी होने के कारण गहराई और उर्वरा शक्ति में भिन्नता पाई जाती है । यह मिट्टी अत्यन्त रन्ध्रयुक्त है । यह अत्यन्त बारीक तथा गहरी होने पर ही उपजाऊ होती है । इस मिट्टी में लोहा , एल्युमीनियम और चूना अधिक होता है । शुष्क ऊँचे मैदानों में पायी जाने वाली मिट्टी उपजाऊ नहीं होती , क्योंकि यहाँ की मिट्टी हल्के रंग की , पथरीली , कम गहरी तथा बालू के समान मोटे कण वाली होती है किन्तु निम्न भूमि क्षेत्र की मिट्टी अधिक गहरी , उपजाऊ और लाल रंग की होती है । यह मिट्टी उत्तरप्रदेश के बुंदेलखण्ड से लेकर दक्षिण के प्रायद्वीप तक पायी जाती हैं । यह मध्यप्रदेश , छत्तीसगढ़ , झारखण्ड , पश्चिमी बंगाल , मेघालय , नागालैण्ड , उत्तरप्रदेश , राजस्थान , तमिलनाडु तथा महाराष्ट्र में मिलती है । इस मिट्टी में बाजरा की फसल अच्छी पैदा होती है , किन्तु गहरे लाल रंग की मिट्टी कपास , गेहूँ , दालें और मोटे अनाज के लिए उपयुक्त है ।

लैटेराइट मिट्टी -

इस मिट्टी का निर्माण ऐसे भागों में हुआ है जहाँ शुष्क व तर मौसम बारी - बारी से होता है । यह मिट्टी लैटेराइट चट्टानों की टूट फूट से बनती है । यह मिट्टी चौरस उच्च भूमियों पर मिलती है । इस में चूना , फास्फोरस और पोटाश कम मिलता है , किन्तु वनस्पति का अंश पर्यास होता है । गहरी लैटेराइट मिट्टी में लोहा ऑक्साइड और पोटाश की मात्रा अधिक होती है । सैटेराइट मिट्टी तीन प्रकार की होती है । 1. गहरी लाल लैटेराइट मिट्टी , 2. सफेद सैटेराइट मिट्टी , 3. गहरी जल वाली लैटेराइट मिट्टी यह तमिलनाडु के पहाड़ी भागों और निचले क्षेत्रों , कर्नाटक के कुर्ग जिले , केरल राज्य के चौड़े समुद्री तट , महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले , पश्चिम बंगाल के बेसाल्ट और ग्रेनाइट पहाड़ियों के बीच तथा उड़ीसा के पठार के ऊपरी भागों और घाटियों में मिलती है । यह मिट्टी चावल , कपास , गेहूँ , दाल , मोटे अनाज , सिनकोना , चाय कहवा आदि फसलों के लिए उपयोगी है ।

मरुस्थलीय मिट्टी -

यह बालू प्रधान मिट्टी है जिसमें बालू के कण मोटे होते हैं । यह मिट्टी दक्षिण - पश्चिम मानसून द्वारा कच्छ के रन को और से उड़कर भारत के पश्चिमी शुष्क प्रदेश में जमा हुई है । इसमें खनिज नमक अधिक मात्रा में पाया जाता है । मरुस्थलीय मिट्टी में नमी कम रहती है तथा वनस्पति के अंश भी कम ही पाये जाते हैं , किन्तु सिंचाई करने पर यह उपजाऊ हो जाती है । इस मिट्टी में गेहूँ , गन्ना , कपास , ज्वार , बाजरा , सब्जियाँ आदि पैदा की जाती है । सिंचाई की सुविधा उपलब्ध न होने पर यह बंजर पड़ी रहती है । इस प्रकार की मिट्टी शुष्क प्रदेशों में विशेषकर पश्चिमी राजस्थान , गुजरात , दक्षिणी पंजाब , दक्षिणी हरियाणा और पक्षिमो उत्तरप्रदेश में मिलती है ।

पर्वतीय मिट्टी -

यह मिट्टी हिमालयी पर्वन श्रेणियों पर पायी जाती है । अधिकांशत : यह मिट्टी पतली , दलदली और छिद्रमयो होती है । नदियों की घाटियों और पहाड़ी ढालों पर यह अधिक गहरी होती है । हिमालय के दक्षिणी दालों के अधिक खदा होने के कारण यहाँ इसका जमाव अधिक नहीं होता । पहाड़ी ढालों के तलहटी में रशियरोकालीन मिट्टी पाई जाती है , जो हल्की बलुई , छिछली , छिद्रमय और कम वनस्पति अंश वाली है । पश्चिमीहिमालय के ढालों पर बलुई मिट्टी मिलती है , मध्य हिमालय के क्षेत्र में अधिक वनस्पति अंशों वाली उपजाऊ मिट्टी मिलती है । अच्छी वर्षा होने पर इस मिट्टी में , दून एवं कांगड़ा घाटी में , चाय की अच्छी पैदावार होती है । हिमालय के दक्षिणी भाग में , असम और दार्जिलिंग में , चिकनी एवं महीन मिट्टी मिलती है , जिसमें पत्थरों के छोटे टुकड़े अधिक तथा वनस्पति , चूना और लोहे के अंश कम पाये जाते हैं , चाय एवं आलू की कृषि के लिए उपयुक्त है । नैनीताल , मसूरी , चकराता आदि स्थानों के निकट चूने एवं डोलोमाइट चट्टानों से मिट्टी प्राप्त होती है जिसमें चीड़ एवं साल के वृक्ष होते हैं । हिमालय के उन भागों में जहाँ ज्वालामुखीय उद्गार हुए हैं उसमें ग्रेनाइट , डोलामाइट आदि आग्नेय चट्टानें पायी जाती हैं ।

मृदा अपरदन -

मृदा को सबसे बड़ा नुकसान अपरदन से होता है । वनस्पतिविहीन नरम मृदा पर अपरदन की प्रक्रिया तीव्र होती है । अपरदन की तीव्र गति के कारण भारत में मिट्टियों की उर्वरा शक्ति प्रतिवर्ष कम होती जा रही है । भूमि के अपरदन की यह समस्या देश के लिए चिन्ताजनक है । मृदा अपरदन का यह परिणाम भूमि तक ही सीमित नहीं है । इसका फल मनुष्यों को भी भुगतना पड़ता है , क्योंकि इससे भूमि की पैदावार निरंतर क्षीण होती जाती है

मृदा अपरदन के कारण -

  • मानव द्वारा वनों का विनाश
  • अत्यधिक पशु चारण
  • आदिवासियों द्वारा झूमिंग कृषि करना
  • पवन अपरदन
  • अवैज्ञानिक तरीके से कृषि

मृदाक्षरण से हानियाँ -

राष्ट्रीय योजना समिति ने भूक्षरण के संयुक्त प्रभावों को निम्न रूप में स्पष्ट किया है ।

  1. वनस्पति के नष्ट हो जाने के कारण सूखे की लम्बी अवधि होना ।
  2. जल के अतिरिक्त स्रोतों पर प्रतिकूल प्रभाव तथा सिंचाई में कठिनाई होना ।
  3. नदियों की तह में बालू का जमना जिससे धरापरिवर्तन और बंदरगाहों का मार्ग अवरुद्ध होना ।
  4. उच्चकोटि की भूमि का नष्ट होना एवं कृषि उत्पादन पर दुष्प्रभाव पड़ना ।
  5. कृषि योग्य भूमि में कमी आना ।

मृदा संरक्षण -

बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण प्राकृतिक संसाधनों का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ है । जिसमें अनेक प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट होने का खतरा पैदा हो गया हैं । इसलिए मृदा संरक्षण द्वारा विनाश रोकना आवश्यक है । मृदा संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं पहाड़ी एवं पर्वतीय क्षेत्रों में सीढ़ीदार खेतों में फसल उगाना । खेतों में बाँधकाएँ बनाकर नालीदार अपरदन को रोकना । शुष्क प्रदेशों में पवन की गति को रक्षकमेखला ( पेड़ - पौधों की बाड़ ) द्वारा कम करके मृदा अपरदन को रोकना । पहाड़ी ढालों पर तथा बंजर भूमि में वृक्षारोपण करना तथा पशुओं की चराई पर नियन्त्रण रखना । पर्वतीय ढालों एवं ऊँचे - नीचे क्षेत्रों में बहते हुए जल का संग्रह करना । ग्रामीण क्षेत्रों में चारागाहों का विकास करना ।

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