मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि करांहि । मुक्ताफल मुक्ता चुगै, अब उड़ी अनत न जांहि ।।


मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि करांहि ।
मुक्ताफल मुक्ता चुगै, अब उड़ी अनत न जांहि ।।

संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के साखियां एवं सबद नामक पाठ से लिया गया है, इस काव्यांश के रचयिता कबीर दास जी हैं ।

प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश में मन रूपी सरोवर के आनंद के क्षणों का वर्णन किया गया है ।

व्याख्या : मानसरोवर झील स्वच्छ जल से लबालब भरी हुई है, उसमें हंस क्रीडा करते हुए मोतियों को चुप रहे हैं वह ऐसे आनंददायक स्थान को छोड़कर कहीं और नहीं जाना चाहते, यह कभी का भावार्थ है कि साधक का मन रूपी सरोवर प्रभु की भक्ति के आनंद जल से भरा हुआ है । उसमें हमारी जीव आत्मा रूपी हंस बिहार कर रहे हैं, वह आनंद के मोतियों को चुभते हैं, और इसे छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाते अर्थात जीव आत्मा रूपी हंस प्रभु भक्ति में लीन होकर मन में परम आनंद का सुख भोग रहे हैं । इस सुख को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाना चाहते हैं ।

काव्य सौंदर्य : अकेली कराही में अनुप्रास, मुक्ता फल मुक्ता चुगै में यमक अलंकार, दोहा छंद का प्रयोग किया गया है, सरल ब्रज भाषा का प्रयोग ।

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