बूढी काकी (Budhi Kaki kahani)


बूढी काकी

जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही । समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे । पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिमाण पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं । उनका रोना-सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं ।

उनके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे कालांतर हो चुका था । बेटे तरुण हो-होकर चल बसे थे । अब एक भतीजे के अलावा और कोई न था । उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति लिख दी । भतीजे ने सारी सम्पत्ति लिखाते समय ख़ूब लम्बे-चौड़े वादे किए, किन्तु वे सब वादे केवल कुली-डिपो के दलालों के दिखाए हुए सब्ज़बाग थे । यद्यपि उस सम्पत्ति की वार्षिक आय डेढ़-दो सौ रुपए से कम न थी तथापि बूढ़ी काकी को पेट भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था । इसमें उनके भतीजे पंडित बुद्धिराम का अपराध था अथवा उनकी अर्धांगिनी श्रीमती रूपा का, इसका निर्णय करना सहज नहीं । बुद्धिराम स्वभाव के सज्जन थे, किंतु उसी समय तक जब कि उनके कोष पर आँच न आए । रूपा स्वभाव से तीव्र थी सही, पर ईश्वर से डरती थी । अतएव बूढ़ी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थी जितनी बुद्धिराम की भलमनसाहत ।

बुद्धिराम को कभी-कभी अपने अत्याचार का खेद होता था । विचारते कि इसी सम्पत्ति के कारण मैं इस समय भलामानुष बना बैठा हूँ । यदि भौतिक आश्वासन और सूखी सहानुभूति से स्थिति में सुधार हो सकता हो, उन्हें कदाचित् कोई आपत्ति न होती, परन्तु विशेष व्यय का भय उनकी सुचेष्टा को दबाए रखता था । यहाँ तक कि यदि द्वार पर कोई भला आदमी बैठा होता और बूढ़ी काकी उस समय अपना राग अलापने लगतीं तो वह आग हो जाते और घर में आकर उन्हें जोर से डाँटते । लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है और फिर जब माता-पिता का यह रंग देखते तो वे बूढ़ी काकी को और सताया करते । कोई चुटकी काटकर भागता, कोई इन पर पानी की कुल्ली कर देता । काकी चीख़ मारकर रोतीं परन्तु यह बात प्रसिद्ध थी कि वह केवल खाने के लिए रोती हैं, अतएव उनके संताप और आर्तनाद पर कोई ध्यान नहीं देता था । हाँ, काकी क्रोधातुर होकर बच्चों को गालियाँ देने लगतीं तो रूपा घटनास्थल पर आ पहुँचती । इस भय से काकी अपनी जिह्वा कृपाण का कदाचित् ही प्रयोग करती थीं, यद्यपि उपद्रव-शान्ति का यह उपाय रोने से कहीं अधिक उपयुक्त था ।

सम्पूर्ण परिवार में यदि काकी से किसी को अनुराग था, तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाडली थी । लाडली अपने दोनों भाइयों के भय से अपने हिस्से की मिठाई-चबैना बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी । यही उसका रक्षागार था और यद्यपि काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण बहुत मंहगी पड़ती थी, तथापि भाइयों के अन्याय से सुरक्षा कहीं सुलभ थी तो बस यहीं । इसी स्वार्थानुकूलता ने उन दोनों में सहानुभूति का आरोपण कर दिया था ।

रात का समय था । बुद्धिराम के द्वार पर शहनाई बज रही थी और गाँव के बच्चों का झुंड विस्मयपूर्ण नेत्रों से गाने का रसास्वादन कर रहा था । चारपाइयों पर मेहमान विश्राम करते हुए नाइयों से मुक्कियाँ लगवा रहे थे । समीप खड़ा भाट विरुदावली सुना रहा था और कुछ भावज्ञ मेहमानों की 'वाह, वाह' पर ऐसा ख़ुश हो रहा था मानो इस 'वाह-वाह' का यथार्थ में वही अधिकारी है । दो-एक अंग्रेज़ी पढ़े हुए नवयुवक इन व्यवहारों से उदासीन थे । वे इस गँवार मंडली में बोलना अथवा सम्मिलित होना अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते थे ।

आज बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम का तिलक आया है । यह उसी का उत्सव है । घर के भीतर स्त्रियाँ गा रही थीं और रूपा मेहमानों के लिए भोजन में व्यस्त थी । भट्टियों पर कड़ाह चढ़ रहे थे । एक में पूड़ियाँ-कचौड़ियाँ निकल रही थीं, दूसरे में अन्य पकवान बनते थे । एक बड़े हंडे में मसालेदार तरकारी पक रही थी । घी और मसाले की क्षुधावर्धक सुगंधि चारों ओर फैली हुई थी ।

बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भाँति बैठी हुई थीं । यह स्वाद मिश्रित सुगंधि उन्हें बेचैन कर रही थी । वे मन-ही-मन विचार कर रही थीं, संभवतः मुझे पूड़ियाँ न मिलेंगीं । इतनी देर हो गई, कोई भोजन लेकर नहीं आया । मालूम होता है सब लोग भोजन कर चुके हैं । मेरे लिए कुछ न बचा । यह सोचकर उन्हें रोना आया, परन्तु अपशकुन के भय से वह रो न सकीं ।

'आहा... कैसी सुगंधि है? अब मुझे कौन पूछता है । जब रोटियों के ही लाले पड़े हैं तब ऐसे भाग्य कहाँ कि भरपेट पूड़ियाँ मिलें?' यह विचार कर उन्हें रोना आया, कलेजे में हूक-सी उठने लगी । परंतु रूपा के भय से उन्होंने फिर मौन धारण कर लिया ।

बूढ़ी काकी देर तक इन्ही दुखदायक विचारों में डूबी रहीं । घी और मसालों की सुगंधि रह-रहकर मन को आपे से बाहर किए देती थी । मुँह में पानी भर-भर आता था । पूड़ियों का स्वाद स्मरण करके हृदय में गुदगुदी होने लगती थी । किसे पुकारूँ, आज लाडली बेटी भी नहीं आई । दोनों छोकरे सदा दिक दिया करते हैं । आज उनका भी कहीं पता नहीं । कुछ मालूम तो होता कि क्या बन रहा है ।

बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी । ख़ूब लाल-लाल, फूली-फूली, नरम-नरम होंगीं । रूपा ने भली-भाँति भोजन किया होगा । कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी । एक पूड़ी मिलती तो जरा हाथ में लेकर देखती । क्यों न चल कर कड़ाह के सामने ही बैठूँ । पूड़ियाँ छन-छनकर तैयार होंगी । कड़ाह से गरम-गरम निकालकर थाल में रखी जाती होंगी । फूल हम घर में भी सूँघ सकते हैं, परन्तु वाटिका में कुछ और बात होती है । इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकड़ूँ बैठकर हाथों के बल सरकती हुई बड़ी कठिनाई से चौखट से उतरीं और धीरे-धीरे रेंगती हुई कड़ाह के पास जा बैठीं । यहाँ आने पर उन्हें उतना ही धैर्य हुआ जितना भूखे कुत्ते को खाने वाले के सम्मुख बैठने में होता है ।

रूपा उस समय कार्यभार से उद्विग्न हो रही थी । कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में, कभी कड़ाह के पास जाती, कभी भंडार में जाती । किसी ने बाहर से आकर कहा--'महाराज ठंडई मांग रहे हैं ।' ठंडई देने लगी । इतने में फिर किसी ने आकर कहा--'भाट आया है, उसे कुछ दे दो ।' भाट के लिए सीधा निकाल रही थी कि एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा--'अभी भोजन तैयार होने में कितना विलम्ब है? जरा ढोल, मजीरा उतार दो ।' बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते-दौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुंझलाती थी, कुढ़ती थी, परन्तु क्रोध प्रकट करने का अवसर न पाती थी । भय होता, कहीं पड़ोसिनें यह न कहने लगें कि इतने में उबल पड़ीं । प्यास से स्वयं कंठ सूख रहा था । गर्मी के मारे फुँकी जाती थी, परन्तु इतना अवकाश न था कि जरा पानी पी ले अथवा पंखा लेकर झले । यह भी खटका था कि जरा आँख हटी और चीज़ों की लूट मची । इस अवस्था में उसने बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास बैठी देखा तो जल गई । क्रोध न रुक सका । इसका भी ध्यान न रहा कि पड़ोसिनें बैठी हुई हैं, मन में क्या कहेंगीं । पुरुषों में लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे । जिस प्रकार मेंढक केंचुए पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटक कर बोली-- ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुटता था? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवर हो गई । जल जाए ऐसी जीभ । दिन भर खाती न होती तो जाने किसकी हांडी में मुँह डालती? गाँव देखेगा तो कहेगा कि बुढ़िया भरपेट खाने को नहीं पाती तभी तो इस तरह मुँह बाए फिरती है । डायन न मरे न मांचा छोड़े । नाम बेचने पर लगी है । नाक कटवा कर दम लेगी । इतनी ठूँसती है न जाने कहां भस्म हो जाता है । भला चाहती हो तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे, तब तुम्हे भी मिलेगा । तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुँह में पानी न जाए, परन्तु तुम्हारी पूजा पहले ही हो जाए ।

बूढ़ी काकी ने सिर उठाया, न रोईं न बोलीं । चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गईं । आवाज़ ऐसी कठोर थी कि हृदय और मष्तिष्क की सम्पूर्ण शक्तियाँ, सम्पूर्ण विचार और सम्पूर्ण भार उसी ओर आकर्षित हो गए थे । नदी में जब कगार का कोई वृहद खंड कटकर गिरता है तो आस-पास का जल समूह चारों ओर से उसी स्थान को पूरा करने के लिए दौड़ता है ।

भोजन तैयार हो गया है । आंगन में पत्तलें पड़ गईं, मेहमान खाने लगे । स्त्रियों ने जेवनार-गीत गाना आरम्भ कर दिया । मेहमानों के नाई और सेवकगण भी उसी मंडली के साथ, किंतु कुछ हटकर भोजन करने बैठे थे, परन्तु सभ्यतानुसार जब तक सब-के-सब खा न चुकें कोई उठ नहीं सकता था । दो-एक मेहमान जो कुछ पढ़े-लिखे थे, सेवकों के दीर्घाहार पर झुंझला रहे थे । वे इस बंधन को व्यर्थ और बेकार की बात समझते थे ।

बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में जाकर पश्चाताप कर रही थी कि मैं कहाँ-से-कहाँ आ गई । उन्हें रूपा पर क्रोध नहीं था । अपनी जल्दबाज़ी पर दुख था । सच ही तो है जब तक मेहमान लोग भोजन न कर चुकेंगे, घर वाले कैसे खाएंगे । मुझ से इतनी देर भी न रहा गया । सबके सामने पानी उतर गया । अब जब तक कोई बुलाने नहीं आएगा, न जाऊंगी ।

मन-ही-मन इस प्रकार का विचार कर वह बुलाने की प्रतीक्षा करने लगीं । परन्तु घी की रुचिकर सुवास बड़ी धैर्य़-परीक्षक प्रतीत हो रही थी । उन्हें एक-एक पल एक-एक युग के समान मालूम होता था । अब पत्तल बिछ गई होगी । अब मेहमान आ गए होंगे । लोग हाथ पैर धो रहे हैं, नाई पानी दे रहा है । मालूम होता है लोग खाने बैठ गए । जेवनार गाया जा रहा है, यह विचार कर वह मन को बहलाने के लिए लेट गईं । धीरे-धीरे एक गीत गुनगुनाने लगीं । उन्हें मालूम हुआ कि मुझे गाते देर हो गई । क्या इतनी देर तक लोग भोजन कर ही रहे होंगे । किसी की आवाज़ सुनाई नहीं देती । अवश्य ही लोग खा-पीकर चले गए । मुझे कोई बुलाने नहीं आया है । रूपा चिढ़ गई है, क्या जाने न बुलाए । सोचती हो कि आप ही आवेंगीं, वह कोई मेहमान तो नहीं जो उन्हें बुलाऊँ । बूढ़ी काकी चलने को तैयार हुईं । यह विश्वास कि एक मिनट में पूड़ियाँ और मसालेदार तरकारियां सामने आएंगीं, उनकी स्वादेन्द्रियों को गुदगुदाने लगा । उन्होंने मन में तरह-तरह के मंसूबे बांधे - पहले तरकारी से पूड़ियाँ खाऊंगी, फिर दही और शक्कर से, कचौरियाँ रायते के साथ मज़ेदार मालूम होंगी । चाहे कोई बुरा माने चाहे भला, मैं तो मांग-मांगकर खाऊंगी । यही न लोग कहेंगे कि इन्हें विचार नहीं? कहा करें, इतने दिन के बाद पूड़ियाँ मिल रही हैं तो मुँह झूठा करके थोड़े ही उठ जाऊंगी ।


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