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प्रकाश का परावर्तन (prakash ka paravartan)

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प्रकाश का परावर्तन प्रकाश का किसी सतह से टकराकर उसी माध्यम में वापस लौटना प्रकाश का परावर्तन कहलाता है । जैसे : जब कोई चमकीली सतह या दर्पण पर प्रकाश टकराता है तो उसकी चमक हमें दिखाई देती है । परावर्तन से संबंधित कुछ परिभाषाएँ - आपतन बिन्दु - परावर्तक तस ( दर्पण ) का वह बिन्दु जहाँ कोई प्रकाश किरण आपतित होती है, आपतन बिन्दु कहलाता है । आपतित किरण - प्रकाश स्रोत से निकलकर परावर्तक तल पर टकराने वाली किरण आपतित किरण कहलाती है । अभिलंब - आपतन बिन्दु पर परावर्तक तल के लम्बवत खीची गई काल्पनिक रेखा को अभिलम्ब कहते हैं । परावर्तित किरण  - परावर्तक तल से परावर्तन के उपरान्त प्राप्त होने वाली किरण परावर्तित किरण कहलाती है । आपतन कोण - आपतित किरण व अभिलम्ब के बीच बना कोण, आपतन कोण कहलाता है । परावर्तन कोण - परावर्तित किरण व अभिलम्ब के बीच बना कोण, परावर्तन कोण कहलाता है । परावर्तन के नियम - आपतन कोण का मान सदैव परावर्तन कोण के बराबर होता है । आपतित किरण, आपतन बिन्दु पर अभिलम्ब तथा परावर्तित किरण सभी एक ही तल में स्थित होते हैं । प्रतिबिंब वस्तु के किसी बिंदु से चलने व

उपभोक्ता जागरूकता (upbhokta jagrukta)

उपभोक्ता जागरूकता उपभोक्ता एवं उत्पादक एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं । एक वस्तुओं का उत्पादन करके उनका विक्रय करता है तो दूसरा उन्हें क्रय करके उनका उपभोग करता है । व्यक्ति उत्पादक हो या न हो पर उपभोक्ता तो प्रत्येक व्यक्ति होता ही है । जब भी कोई व्यक्ति अपनी आवश्यकता की संतुष्टि हेतु अंतिम वस्तुओं एवं सेवाओं को खरीदता है उसी समय उसकी भागीदारी बाजार में हो जाती है । इस प्रकार एक उपभोक्ता वह व्यक्ति है जो बाजार से वस्तु खरीदता है । पूँजीवाद एवं वैश्वीकरण के इस युग में प्रत्येक उत्पादक का प्रमुख उद्देश्य अपने लाभ को अधिकतम करना होता है । उत्पादक हर सम्भव तरीके से अपने उत्पाद की बिक्री बढ़ाने में लगे हुए हैं । अत: अपने उद्देश्य की पूर्ति करते हुये थे उपभोक्ताओं के पक्ष को भूल जाते है और उनका शोषण करते हैं । उदाहरण के लिये - कम वजन तौलना, अधिक कीमत वसूलना, मिलावटी एवं दोषपूर्ण वस्तुएँ बेचना, भ्रमित विज्ञापन देकर उपभोक्ताओं को गुमराह करना आदि । इस प्रकार उपभोक्ता बाजार: में ठगा न जा सके इसके लिए उसे जागरुक बनाना आवश्यक है । इस प्रकार उपभोक्ता जागरुकता से आशय उपभोक्ता को अपने अध

सौरमंडल ( sour mandal)

सौर प्रणाली ( Solar System ) ब्रह्माण्ड में उपस्थित कई मंदाकिनियों में से एक हमारी आकाशगंगा ' है । आकाशगंगा में उपस्थित कई तारों में एक तारा सूर्य है । सूर्य के चारों ओर दीर्घ वृत्ताकार मार्ग पर गति कर रहें यहाँ में एक हमारी पृथ्वी है । सौर प्रणाली के ग्रहों की संख्या आठ है । ग्रहों के चारों ओर चक्कर लगाने वाले पिण्डों को उपग्रह कहते हैं ! पृथ्वी का एक ही उपराह चन्द्रमा है । ग्रहों के अलावा क्षुद्र ग्रह ( asteroid ) , धूमकेतु अर्थात पुच्छलतारे ( comet ) आर उल्काओं ( meteors ) की भी बहुत बड़ी संख्या है । सूर्य के गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव में , सारे ग्रह और अन्य आकाशीय पिण्ड सूर्य की परिक्रमा करते रहते हैं । सूर्य और उसके नौ ग्रह , विभिन्न उपग्रह और अन्य अगणित आकाशीय पिण्डों जैसे क्षुद्र ग्रह , धूमकेतु एवं उल्काओं से सम्पन्न व्यवस्था को सार प्रणाली कहते हैं । सौर प्रणाली का आकार अनुमानतः 10 5 AU ( खगोलीय मात्रक ) हैं [ 1 AU = 1.496 x 10 11 मीटर ( 14.96 करोड़ किमी. ) ] । आइए , अब हम सौर प्रणाली के प्रमुख सदस्यों के बारे में चर्चा करें : सूर्य - सौर प्रणाली का सूर्य ,

पृथ्वी ( prithvi)

पृथ्वी ( Earth ) पृथ्वी वा ग्रह है जिस पर हम रहते हैं । यहाँ के पर्वत , नदिया , जलाशय , वन , मरुस्थल , जीव - जन्तु आदि आकर्षण का केन्द्र हैं । नोंक हम पृथ्वी पर रहते हैं अत : हमें इसको उत्पत्ति , विकास और संरचना जानने की सहज में ही उत्सुकता होती है । आइए , हम पृथ्वी की उत्पत्ति , विकास एवं संरचना के विषय में जानें : पृथ्वी की उत्पत्ति - पृथ्वी को उत्पत्ति सूर्य से अलग हुए पदार्थ ( पिण्ड ) के धीरे - धीरे ठण्डे होने से हुई है । प्रारम्भ में पृथ्वी ठंडी चट्टानों का एक समूह थी । पृथ्वी की इन चट्टानों में रेडियोधर्मी पदार्थ जैसे यूरेनियम , थोरियम और पोटेशियम 40 आदि थे । इन रेडियोधर्मी पदार्थों के स्वाभाविक विघटन से विपुल ऊष्मा उत्पन्न हुई । इस विपुल ऊष्मा एवं गुरुत्वीय संकुचन ने पृथ्वी का ताप इतना अधिक कर दिया कि पृथ्वी द्रवित हो गई । मूल पृथ्वी ग्रह के अस्तिाव में आने के 80 करोड़ वर्ष बाद द्रवीकरण की यह घटना हुई । पृथ्वी का विकास - जब पृथ्वी का द्रवीकरण हुआ तो गुरुत्व के प्रभाव से इसके पदार्थ में पुनर्व्यवस्था प्रारम्भ हो गई । द्रवित लोहा सबसे भारी होने के कारण पृथ्वी के केन्द्री

तारामण्डल ( taramandal Constellation )

तारामण्डल ( Constellation ) तारों का वह समूह जो पहचानने योग्य आकृति एवं प्रतिरूप बनाता है , तारामण्डल कहलाता है । इसे नक्षत्र मण्डल भी कहते हैं । अब तक लगभग 88 तारा मण्डल पहचान लिये गये हैं । तारा मण्डल के भिन्न - भिन्न तारों के बीच की दूरियाँ भी भिन्न - भिन्न होती हैं । तारामण्डल अन्य खगोलीय पिण्डों एवं घटनाओं के निर्धारण के लिये सुविधाजनक निर्देश बिन्दु प्रदान करते हैं । तारामण्डलों को उनसे मिलती - जुलती पशु , मनुष्य या अन्य आकृति से पहचानना सुविधाजनक होता है । प्राचीन काल से ही भारत में तारा मण्डलों को पहचाना जाता रहा है । हमारे पूर्वजों ने कुछ तारामण्डलों का नामकरण इस प्रकार किया था - सप्त ऋषि ( ursa major or Big Bear ) मृग ( Orion ) मेष ( Aries ) वृष ( Taurus ) मिथुन ( Gamini ) कर्क ( Cancer ) सिंह ( Leo ) कन्या ( Virgo ) तुला ( Libra ) वृश्चिक ( Scorpio ) धनु ( Sagittarius ) मकर ( Capricorn ) कुम्भ ( Aquarius ) मीन ( Pisces ) सप्त ऋषि ( Big Bear or Ursa Major or Great Bear ) - सप्त ऋषि तारामण्डल में तारों की स्थिति चित्र 1.7 ( a ) में प्रदर्शित है

भारत के अंतरिक्ष उपग्रह (bharat ke antriksha upgrah)

भारत के अंतरिक्ष उपग्रह हमारा देश भारत भौगोलिक विविधताओं वाला एक विशाल देश है । इसका कोई भू - भाग रेगिस्तानी है तो कोई ऊँचे पहाड़ों वाला , कोई भाग मैदानी है तो कोई पठारी । किसी भाग पर वर्ष भर बर्फ जमी रहती है तो किसी भाग पर सूर्य की तपन कम नहीं होती । भारत का एक बड़ा भू - भाग समुद्र से भी घिरा है । देश के सभी भागों के त्वरित विकास के लिए एक अच्छी संचार व्यवस्था का होना अत्यन्त आवश्यक है । हमारा देश कृषि प्रधान है । अत : वर्षा , ओले , आँधी आदि की पूर्व सूचना की बहुत आवश्यकता होती है । इन सभी कार्यों में सूचनाओं के आदान - प्रदान के लिये कृत्रिम उपग्रहों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए पिछले तीस वर्षों से हमारे देश में एक बहुत महत्वपूर्ण अन्तरिक्ष कार्यक्रम संचालित है । आज भारत की गणना विश्व के उन गिने चुने देश में की जाती है जो अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप कृत्रिम उपग्रह बनाने एवं छोड़ने में आत्मनिर्भर हैं । हमारे देश में इसरो ( ISRO ) के वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों ने भारतीय आवश्यकताओं के अनुरूप विभिन्न अधो संरचनाएँ खड़ी की हैं तथा कई कृत्रिम उपग्रह पृ

औषधीय पौधे और उनके उपयोग (aushadhiya paudhe aur unke upyog)

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औषधीय पौधे और उनके उपयोग प्राचीन काल से भारत औषधीय पौधों एवं जड़ी बूटियों का भण्डार रहा है । लेकिन वर्तमान में पूरे विश्व में प्रतिदिन एक वनस्पति लुम होती जा रही हैं, भारत में भी कई वनस्पतियाँ लुप्त हो चुकी हैं । और कुछ वनस्पतियाँ लुप्त होने की कगार पर हैं । अत्यधिक ऐलोपैथिक रासायनिक दवाओं के उपयोग से उपचार के साथ साथ स्वास्थ्य पर उसके विपरीत प्रभाव के कारण आज विश्व प्राकृतिक जड़ी - बूटियों के उपयोग की ओर ध्यान देने लगा है । भारतीय चिकित्सा पद्धतियों जैसे आयुर्वेद, यूनानी में दी जाने वाली दवाइयों में भी इन जड़ी - बूटियों व औषधीय पौधों का उपयोग किया जाता है । आयुर्वेद के क्षेत्र में भारत प्रारंभ से ही अग्रणी रहा है । आचार्य चरक द्वारा रचित चरक संहिता तथा आचार्य सुश्रुत द्वारा रचित सुश्रुत संहिता तथा आचार्य सुश्रुत द्वारा ज्ञान होने के साथ साथ इस ज्ञान का एक पीढी से दूसरी पीढ़ी को मौखिक स्थानांतरण भी होते रहा है ।, भारत में औषधियों की विभिन्न प्रणालियों में करीब 7500 प्रजातियों का उपयोग किया जाता है ।, इनमें से कुछ औषधियों की माँग बहुत अधिक है जैसे- सफेद मूसली, शतावरी, शंखपुष्प

ऊर्जा के गैर - परम्परागत स्रोत (urja ke gair paramparagat shrot)

ऊर्जा के गैर - परम्परागत स्रोत सौर ऊर्जा ( Solar Energy ) - सूर्य से प्राप्त ताप से जो ऊर्जा प्राप्त होती है, उसे सौर ऊर्जा कहा जाता है । सूर्य की धूप से प्राप्त ऊर्जा का सीधा उपयोग भी किया जाता है तथा इसे विद्युत में बदलकर भी किया जाता है । सौर ऊर्जा का उपयोग - पानी को गर्म करने तथा भोजन पकाने, जगह को गर्म करने तथा वस्तु को सुखाने, पानी को शुद्ध करने व फसलों को पकाने, प्रकाश व मशीनों के संचालन के लिए किया जातः | . सौर तापीय ऊर्जा संग्रहकों और रिसीवरों के माध्यम से प्राप्त की जाती है, जबकि सौर ऊर्जा को बिजली | के रूप में प्राप्त करने हेतु सौर फोटो वोल्टैइक प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जाता है । सौर ऊर्जा से प्राप्त बिजली का उपयोग वर्तमान में व्यावसायिक स्तर पर भी किया जाने लगा है । भारत के दूर दराज के गाँवों में जहाँ बिजली नहीं है, वहाँ सौर ऊर्जा को अति सरलता से विविध कार्यों के लिए उपयोग किया जा रहा है । आज देश में % मेगावाट क्षमता की 9,80,000 से अधिक सौर बिजली उत्पादक इकाइयां देश में स्थापित की गई हैं । पवन ऊर्जा ( Wind Energy ) - बहती हुई हवा की गति से जो ऊर्जा प्राप्त

मृदा (mrida : mrida ke banavat , prakar , vitran aur uska sanrakshan)

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मृदा : मृदा की बनावट , प्रकार , वितरण और उसका संरक्षण मृदा किसान की अमूल्य सम्पदा है हमारे देश के आर्थिक विकास का प्रमुख आधार मिट्टी या मृदा है । अमरीकी मिट्टी विशेषज्ञ डॉ बैनेट के अनुसार " मृदा भूपृष्ठ पर मिलने वाले असंगठित पदार्थों की वह ऊपरी परत है जो मूल चट्टानों अथवा वनस्पति के योग से बनती है । " धरातल के अधिकतर भाग पर मृदा पाई जाती है । यह मूल चट्टानों और जैव पदार्थों का सम्मिश्रण है , जिसमें उपयुक्त जलवायु होने पर नाना प्रकार की वनस्पतियाँ उगती है । मानव जीवन में मृदा का महत्व बहुत अधिक है , विशेषकर किसानों के लिए । समस्त मानव जीवन मिट्टी पर निर्भर करता है समस्त प्राणियों का भोजन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिट्टी से प्राप्त होता है । हमारे वस्त्रों के निर्माण में प्रयुक्त कपास , रेशम , जूट व ऊन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमें मिट्टी से ही मिलते हैं जैसे- भेड़ मिट्टी पर उगी घास खाती है और हमें ऊन देती है । रेशम के कीड़े वनस्पति पर जीते हैं और वनस्पति मिट्टी पर उगती है । भारत में लाखों घर मिट्टी के बने हुए हैं । हमारा पशुपालन उद्योग , कृषि और वनोद्योग मिट्टी पर आधारि

नर व मादा जनन तंत्र (nar mada janan tantra)

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नर व मादा जनन तंत्र नर जनन तंत्र जनन - कोशिका उत्पादित करने वाले अंग एवं जनन कोशिकाओं को निषेचन के स्थान तक पहुँचाने वाले मूत्र अंग . संयुक्त रूप से , नर जनन तंत्र बनाते हैं । नर जनन - कोशिका अथवा शुक्राणु का निर्माण वृषण में होता है । यह उदर गुहा के बाहर वृषण कोष में स्थित होते हैं । इसका कारण यह है कि शुक्राणु उत्पादन के लिए आवश्यक ताप शरीर के ताप से कम होता है । टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन के उत्पादन एवं स्रवण में वृषण की भूमिका की चर्चा हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं । शुक्राणु उत्पादन के नियंत्रण के अतिरिक्त टेस्टोस्टेरॉन लड़कों में यौवनावस्था के लक्षणों का भी नियंत्रण करता है । उत्पादित शुक्राणुओं का मोचन शुक्रवाहिकाओं द्वारा होता है । ये शुक्रवाहिकाएँ मूत्राशय से आने वाली नली से जुड़ कर एक  संयुक्त नली बनाती है । अत : मूत्रमार्ग ( urethra शुक्राणुओं एवं मूत्र दोनों के प्रवाह के उभय मार्ग है । प्रोस्ट्रेट तथा शुक्राशय अपने नाव शुक्रवाहिका में डालते हैं जिससे शुक्राणु एक तरल माध्यम में आ जाते हैं । इसके कारण इनका स्थानांतरण सरलता से होता है साथ ही यह नाव उन्हें पोषण

मानव मस्तिष्क (manav mastishk human brain)

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मानव मस्तिष्क क्या मेरुरज्जु का कार्य केवल प्रतिवर्ती क्रिया है ? निश्चित रूप से नहीं , क्योंकि हम जानते हैं कि हम सोचने वाले प्राणी हैं । मेरुरज्जु तंत्रिकाओं की बनी होती है जो सोचने के लिए सूचनाएँ प्रदान करती हैं सोचने में अधिक जटिल क्रियाविधि तथा तंत्रिक संबंधन होते हैं । ये मस्तिष्क में संकेंद्रित होते हैं जो शरीर का मुख्य समन्वय केंद्र है । मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु केंद्रीय तंत्रिका तंत्र बनाते हैं । ये शरीर के सभी भागों से सूचनाएँ प्राप्त करते हैं तथा इसका समाकलन करते हैं । हम अपनी क्रियाओं के बारे में भी सोचते हैं । लिखना , बात करना , एक कुर्सी घुमाना , किसी कार्यक्रम के समाप्त होने पर ताली बजाना इत्यादि ऐच्छिक क्रियाओं के उदाहरण हैं जो आगे क्या करना है , के निर्णय पर रित हैं । अत : मस्तिष्क को भी पेशियों तक संदेश भेजने होते हैं । यह दूसरा मार्ग है जिसमें तंत्रिका तंत्र पेशियों में संचार भेजता है । केंद्रीय तंत्रिका तंत्र तथा शरीर के अन्य भागों में संचार को परिधीय तंत्रिका तंत्र सुगमता प्रदान करता है जो मस्तिष्क से निकलने वाली कपाल तंत्रिकाओं तथा मेरुरज्जु से निकलने वाली म

हृदय (heart)

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हमारा हृदय हृदय एक पेशीय अंग है जो हमारी मुट्ठी के आकार का होता है । क्योंकि रुधिर को ऑक्सीजन व कार्बन डाइऑक्साइड दोनों का ही वहन करना होता है अत : ऑक्सीजन प्रचुर रुधिर को कार्बन डाइऑक्साइड युक्त रुधिर से मिलने को रोकने के लिए हृदय कई कोष्ठों में बँटा होता है । कार्बन डाइऑक्साइड प्रचुर रुधिर को कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ने के लिए फुफ्फुस में जाना होता है तथा फुफ्फुस से वापस ऑक्सीजनित रुधिर को हृदय में लाना होता है । यह ऑक्सीजन रुधिर तब शरीर के शेष हिस्सों में पंप किया जाता है । हम इस प्रक्रम को विभिन्न चरणों में समझ सकते हैं । ऑक्सीजन प्रचुर रुधिर फुफ्फुस से हृदय में बाईं ओर स्थित कोष्ठ - बायाँ अलिंद , आता है । इस रुधिर को एकत्रित करते समय बायाँ अलिंद शिथिल रहता है । जब अगला कोष्ठ , बायाँ निलय , फैलता है तब यह संकुचित होता है जिससे रुधिर इसमें स्थानांतरित होता है । अपनी बारी पर जब पेशीय बायाँ निलय संकुचित होता है , तब रुधिर शरीर में पंपित हो जाता है । ऊपर वाला दायाँ कोष्ठ , दायाँ अलिंद जब फैलता है शरीर से विऑक्सीजनित रुधिर इसमें आ जाता है । जैसे ही दायाँ अलिंद संकुचित होता है , नी

उत्सर्जन (utsarjan)

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उत्सर्जन हम चर्चा कर चुके हैं कि जीव प्रकाशसंश्लेषण तथा श्वसन में जनित वर्ण्य गैसों से कैसे छुटकारा पाते हैं । अन्य उपापचयी क्रियाओं में जनित नाइट्रोजन युक्त पदार्थों का निकलना आवश्यक है । वह जैव प्रक्रम जिसमें इन हानिकारक उपापचयी वर्ण्य पदार्थों का निष्कासन होता है, उत्सर्जन कहलाता है । विभिन्न जंतु इसके लिए विविध युक्तियाँ करते हैं । बहुत से एककोशिक जीव इन अपशिष्टों को शरीर की सतह से जल में विसरित कर देते हैं । जैसा हम अन्य प्रक्रम में देख चुके हैं ।, जटिल बहुकोशिकीय जीव इस कार्य को पूरा करने के लिए विशिष्ट अंगों का उपयोग करते हैं । मानव में उत्सर्जन मानव के उत्सर्जन तंत्र ( चित्र 1 ) में एक जोड़ा वृक्क, एक मूत्रवाहिनी, एक मूत्राशय तथा एक मूत्रमार्ग होता है । वृक्क उदर में रीढ़ की हड्डी के दोनों ओर स्थित होते हैं । वृक्क में मूत्र बनने के बाद मूत्रवाहिनी में होता हुआ मूत्राशय में आ जाता है यहाँ तब तक एकत्र रहता है जब तक मूत्रमार्ग से यह निकल नहीं जाता है । मूत्र किस प्रकार तैयार होता है ? मूत्र बनने का उद्देश्य रुधिर में से वर्ण्य पदार्थों को छानकर बाहर करना है । फुफ्फुस में