लोथियन ग्रीन का चतुष्फलक सिद्धान्त Lothiyan green ka chatusfalak siddhant


लोथियन ग्रीन का चतुष्फलक सिद्धान्त

लोथियन ग्रीन ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1875 में किया। यह सिद्धान्त चतुष्फलक की सामान्य विशेषताओं पर आधारित है। चार बराबर भुजाओं वाले त्रिभुजों की आकृति चतुष्फलक कहलाती है। इसके त्रिभुज सपाट तथा चपटे धरातल वाले होते हैं। उनका सिद्धान्त अग्र तथ्यों पर आधारित है—

  1. एक गोलाकार आकृति अपने धरातलीय क्षेत्र की अपेक्षा अधिक आयतन रखती है।
  2. एक चतुष्फलक आकृति अपने धरातलीय क्षेत्र की अपेक्षा कम आयतन रखती है। 
  3. लोथियन ग्रीन का सिद्धान्त फेयर बर्न की इस मान्यता पर आधारित है कि किसी गोलाकार पाइप को चारों ओर से समान दाब द्वारा दबाने पर वह चतुष्फलक की आकृति का हो जाता है।

लोथियन ग्रीन का विचार है कि पृथ्वी प्रारम्भिक अवस्था में तरल थी जो धीरे-धीरे ठण्डा होने से ठोस रूप में परिवर्तित हुई। ठण्डे होने की इस प्रक्रिया में पृथ्वी का बाह्य भाग आन्तरिक भाग की तुलना में अधिक सिकुड़ गया। इस संकुचन से पृथ्वी के भीतरी भाग का आयतन भी कम हो गया तथा भूपृष्ठ एवं आन्तरिक भाग के मध्य कुछ स्थान रिक्त हो गया। इस आन्तरिक भाग पर इस ऊपरी भाग ने दबाव डालना प्रारम्भ कर दिया। इस दबाव के कारण उसकी आकृति एक चतुष्फलक में बदल गयी। इस क्रिया में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति ने ऊपरी परतों को निचली परतों पर लाद दिया था जिससे दबाव अधिक हो गया था। ऊपरी धरातल के निचले चतुष्फलक की आकृति पर बैठ जाने से सागर तथा स्थल भागों का निर्माण हुआ। लोथियन ग्रीन द्वारा स्थल एवं जल चतुष्फलक का ऊपरी भाग सपाट एवं चपटा है। अन्य तीन सपाट भाग दक्षिण में एक बिन्दु पर मिलते हैं। उत्तरी सपाट भाग पर उत्तरी ध्रुव सागर तथा अन्य चपटे भागों पर प्रशान्त महासागर, अटलाण्टिक महासागर व हिन्द महासागर स्थित हैं। इसी भाँति जल से बाहर निकले चार कोणात्मक भागों के सहारे उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका, यूरोप व अफ्रीका, एशिया तथा ऑस्ट्रेलिया व अण्टार्कटिका महाद्वीपों का विस्तार है। चतुष्फलक कनाडा पृथ्वी के तीन कोणात्मक भाग कनाडा शील्ड, बाल्टिक शील्ड तथा अंगारा शील्ड आदि निर्मित करेगा। उत्तरी चपटे तल के चारों ओर कगारें हैं जो अमेरिका के उत्तरी भाग, उत्तरी यूरोप व एशिया का निर्माण करंगी। महाद्वीपीय भाग चतुष्फलक के किनारे हैं जो दक्षिण की ओर सँकरे होते चले जाते हैं। इससे महाद्वीपों का त्रिभुजाकार होना प्रमाणित होता है। इसके साथ ही चार सपाट भागों के सहारे महासागरों की स्थिति तथा किनारों के सहारे महाद्वीपों की स्थिति स्थल एवं जल की प्रतिध्रुवस्थ स्थिति (Antipodal arrangement) प्रमाणित करता है।

जे. डब्ल्यू. ग्रेगरी ने चतुष्फलक सिद्धान्त में कुछ संशोधन कर इसका प्रबल समर्थन किया। ग्रेगरी महोदय ने पुरा भौगोलिक मानचित्र की रचना की तथा बताया कि कैम्ब्रियन युग में महाद्वीप एवं महासागरी का वितरण वर्तमान वितरण से पूर्णतः मेल खाता था। उनके अनुसार कैम्ब्रियन काल में एक विशाल त्रिभुजाकार महाद्वीप उत्तर में स्थापित था जिसका शीर्ष दक्षिण में था। ग्रेगरी महोदय ने सिद्ध करके बताया कि संकुचन के कारण पृथ्वी में सिकुड़न पड़ने से चतुष्फलक के लम्बवत् किनारे स्थिर रहे जबकि ऊपरी सपाट सतह को घेरने वाले उत्तल कोने परिवर्तनशील रहे। ये कोने उत्तर-दक्षिण दिशा की ओर परिवर्तनशील रहे। इसीलिए महाद्वीप एवं महासागरों का रूप परिवर्तित होता रहा। लेक महोदय ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन किया।

आलोचना – लोथियन ग्रीन ने अपने सिद्धान्त द्वारा महाद्वीप एवं महासागरों की अनेक समस्याओं पर प्रकाश डाला है, फिर भी वर्तमान समय में इसमें अनेक कमियाँ दिखाई दी जिससे इसकी आलोचना हुई। पृथ्वी ऊपरी धुरी पर घूमती हुई एक चतुष्फलक की आकृति में नहीं रह सकती अपितु गोलाकार हो जायेगी। एक शीर्ष बिन्दु पर परिभ्रमण करती हुई चतुष्फलक के रूप में पृथ्वी अपना सन्तुलन नहीं बना सकती है। चतुष्फलक सिद्धान्त के आधार पर सर्वाधिक स्थलीय भाग 30° पर होना चाहिए जबकि यह सर्वाधिक 66 उत्तरी अक्षांश पर है। गणितीय आधार पर भी इस सिद्धान्त को गलत सिद्ध किया गया है।