जैफ्रे का तापीय संकुचन सिद्धान्त Jefre ka tapiya sankuchan siddhant


जैफ्रे का तापीय संकुचन सिद्धान्त

जैफ्रे का मानना था कि पृथ्वी पर भू-आकृतियों का निर्माण पृथ्वी के ठण्डा होकर संकुचित होने तथा इसकी परिभ्रमण गति में कमी आने से हुआ है। जैफ्रे के अनुसार पृथ्वी का निर्माण अनेक संकेन्द्रीय खोला से हुआ है। विभिन्न चट्टानें विभिन्न कालों में ठण्डी हुई जिससे उनमें संकुचन हुआ किन्तु पृथ्वी की परतों में यह संकुचन समान रूप से नहीं हुआ। 700 किलोमीटर से अधिक गहराई पर भूक्रोण में तापीय अन्तर नहीं हुआ और न ही उसके आयतन में कोई अन्तर आया। इससे ऊपर स्थित चट्टानों में परिवर्तन हुआ अर्थात् वे नीचे वाली चट्टानों की तुलना में अधिक ठण्डी हुई। इससे ऊपर की परतों में संकुचन प्रारम्भ हुआ। प्रत्येक ऊपर वाली परत नीचे वाली परत की तुलना में अधिक ठण्डी एवं संकुचित हुई। इससे उसका आयतन भी कम हुआ। धीरे-धीरे नीचे वाली परतें ऊपरी परतों के प्रभाव से क्रमश: ठण्डी व संकुचित होती गयी। ऊपरी परत के पूर्णतः ठण्डी हो जाने के बाद भी भीतरी परत ठण्डी एवं संकुचित होती रहेगी। परिणामतः ऊपरी परत भीतरी परत से बड़ी रहेगी। इससे उसे अपनी निचली परत पर मुड़ना व टूटना पड़ेगा। इसी भाँति निचली परत को ऊपरी परत पर सटे रहने के लिए फैलना पड़ेगा अतः उसमें दरारें पड़ेगी। जैफ्रे ने इन दोनों परता (खोलो) के मध्य एक ऐसा भाग होने की कल्पना की जहाँ किसी प्रकार का तनाव व भिचाव नहीं होगा। इसे Level of no strain कहा। यह भाग ऊपरी तथा निचले खोलों के मध्य सामंजस्य प्रकट करेगा। जैफ्रे का मानना है कि संकुचन द्वारा पृथ्वी पटल पर 200 किलोमीटर का अन्तर आता है। सन् 1920 तक प्राप्त परिकलनों के आधार पर कैलीफोर्निया को तृतीय श्रेणियों पर 16 किलोमीटर, आल्पस पर्वत पर 119, ब्रिटिश कोलम्बिया में रॉकी के स्थान पर 65 से 80 किलोमीटर तक भूपृष्ठ का संकुचन हुआ।

जैफ्रे ने बताया कि महासागरों के नीचे स्थित भू-भाग अपेक्षाकृत अधिक ठण्डा हुआ। यह भाग अधिक घनत्व की चट्टानों का बना हुआ था अतः यहाँ संकुचन के कारण पड़ने वाले मोड़ समीपवर्ती महाद्वीपों पर ही पड़े। प्रशान्त महासागर के किनारे स्थित महाद्वीपों में पर्वत श्रृंखला इसी तरह निर्मित हुई। जैफ्रे का मानना है कि वलन और भ्रंशन पड़ने से जब संकुचन द्वारा उत्पन्न दबाव कम हो जाएगा, उस समय पृथ्वी का शान्त काल होगा। इसके बाद पुनः संकुचन का कार्य चलता रहेगा और जब संकुचन द्वारा उत्पन्न शक्ति चट्टानों की शक्ति से अधिक हो जाएगी, तो पुनः वलन एवं अंशन उत्पन्न होंगे। उनका विचार था कि पृथ्वी के जीवनकाल में अभी तक पाँच बार पृष्ठीय वलन हो चुके हैं।
जैफ्रेने बताया कि महासागरों के नीचे स्थित भू-भाग अपेक्षाकृत अधिक ठण्डा हुआ। यह भाग अधिक घनत्व की चट्टानों का बना हुआ था अतः यहाँ संकुचन के कारण पड़ने वाले मोड़ समीपवर्ती महाद्वीपों पर ही पड़े। प्रशान्त महासागर के किनारे स्थित महाद्वीपों में पर्वत श्रृंखला इसी तरह निर्मित हुई। जैसे का मानना है कि वलन और भ्रंशन पड़ने से जब संकुचन द्वारा उत्पन्न दबाव कम हो जाएगा, उस समय पृथ्वी का शान्त काल होगा। इसके बाद पुनः संकुचन का कार्य चलता रहेगा और जब संकुचन द्वारा उत्पन्न शक्ति चट्टानी की शक्ति से अधिक हो जाएगी, तो पुनः वलन एवं भ्रंशन उत्पन्न होंगे। उनका विचार था कि पृथ्वी के जीवनकाल में अभी तक पाँच बार पृष्ठीय वलन हो चुके हैं।

जैफ्रे महोदय का मानना था कि पृथ्वी की परिभ्रमण गति अधिक थी जो लगातार कम होती गयी। अधिक घूमने के कारण विषुवतरेखीय भाग पर पदार्थों का जमाव तथा संकुचन अधिक रहा होगा। ऐसा माना जाता है कि लगभग 160 करोड़ वर्ष पूर्व की विषुवत्रेखीय परिधि में वर्तमान की अपेक्षा 18 किलोमीटर का संकुचन हुआ होगा। घूमने की गति में कमी आने से विषुवत्रेखीय भाग से पदार्थ ध्रुवों की ओर हट गया।

आलोचना – जैफ्रे का तापीय संकुचन सिद्धान्त प्रारम्भिक अवस्था में बहुत मान्य रहा किन्तु वैज्ञानिक खोजों ने इसे मान्यता देने से इन्कार कर दिया। इनके सिद्धान्त में निम्न आपत्तियाँ है—

  1. जैफ्रे ने संकुचन द्वारा पड़ने वाले वलनों से विशाल पर्वत श्रृंखलाओं की उत्पत्ति बतायी जबकि संकुचन से साधारण मोड़ तो पड़ सकते हैं किन्तु वे विशाल पर्वत श्रृंखलाओं को उत्पन्न नहीं कर सकते।
  2. गोलाकार पृथ्वी पर संकुचन से उत्पन्न पर्वत श्रृंखलाओं का रूप वर्तमान समय की पर्वत श्रृंखलाओं के समान नहीं हो सकता। ये सभी सम्भावनाएँ चौरस पृथ्वी पर तो सम्भव हैं।
  3. यह सिद्धान्त जल एवं स्थल के वितरण को ठीक से नहीं दर्शाता । यदि पृथ्वी तरल अवस्था से ोस हुई तो जल एवं स्थल कैसे अलग-अलग हो गए।
  4. आर्थर होम्स का मानना था कि पृथ्वी की परिभ्रमण गति में कमी आने से पर्वत निर्माणकारी अवस्था आसानी से सम्भव हो सकती है किन्तु परिस्थिति इसके विपरीत है ?
यद्यपि जैफ्रे का बहुत विरोध हुआ किन्तु यह सिद्धान्त निम्न तथ्यों के आधार पर महत्व रखता है—
  1. पृथ्वी के अक्ष का झुकाव कक्षान्तल पर परिवर्तनशील रहता है।
  2. महाद्वीपों का अपने स्थान से परिभ्रमित होना।
  3. धरुवीय क्षेत्रों का परिभ्रमित होना ।
  4. पृथ्वी सतह पर ग्रेनाइट का कुछ स्थानों पर संग्रह चुम्बकीय अन्तर के कारण ही हुआ जिससे महाद्वीप बने । महासागरों पर ग्रेनाइट के एकत्रित न हो सकने से उनके तल नीचे रहे।
  5. जब पृथ्वी तरल अवस्था से ठोस हुई तो उसके पृष्ठ पर कुछ स्थानों पर ग्रेनाइट का जमाव हो गया।