भूगर्भ की संरचना Bhugarbh ki sanrachna


भूगर्भ की संरचना [INTERIOR OF THE EARTH)

भू-विज्ञान के अन्तर्गत भूगर्भ की जानकारी प्राप्त की जाती है। आज तक वैज्ञानिक ऐसा कोई यन्त्र या विधितन्त्र नहीं ढूँढ़ पाए है, जिसकी सहायता से काफी गहराई तक या आन्तरिक केन्द्र तक का प्रामाणिक ज्ञान उसी भाँति प्राप्त किया जा सके, जिस भाँति रेडियो, दूर्बीन, रॉकेट एवं मानव निर्मित उपग्रहों तथा अन्तरिक्ष यान के द्वारा ब्रह्माण्ड या अन्तरिक्ष का ज्ञान प्राप्त किया जाता रहा है। इसी कारण भूगर्भ का अधिक-से-अधिक सही-सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक तकनीक से विकसित साधनों द्वारा अप्रत्यक्ष एवं कभी-कभी प्रत्यक्ष प्रमाणों आदि सभी को मिलाकर सही दिशा की ओर सम्भावित ज्ञान-प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयास किया जाता है।

भूगर्भ की आन्तरिक अवस्था (दशा) सम्वन्धी प्रमाण -

वर्तमान युग में नवीनतम् तकनीक, वैज्ञानिक अन्वेषणों तथा खोजों एवं विश्लेषण की सहायता से पृथ्वी के आन्तरिक भाग की एवं विविध गहराई पर उसकी संरचना, स्वरूप आदि के बारे में सही प्रकार से प्रामाणिक तथ्य ज्ञात करने का निरन्तर प्रयास किया जाता रहा है। सभी उपलब्ध प्रमाणों को निम्नलिखित शीर्षको द्वारा समझाया जा सकता है-

(अ) अप्राकृतिक साधन (ARTIFICIAL SOURCES)

1. घनत्व पर आधारित प्रमाण

पृथ्वी की ऊपरी सतह परतदार चट्टानों से बनी है। इनकी गहराई 500 से 1.500 मीटर तथा कहीं-कहीं यह गहराई कई किमी तक है। इसके नीचे आग्नेय चट्टानं जिनका घनत्व 2.4 से 2.7 है, पायी जाती है। यह पृथ्वी की ऊपरी सतह पर पायी जाती है। इन्हें अवसादी चट्टाने भी कहते है। इन चट्टानों के पश्चात् अधिक घनत्व वाली आग्नेय चट्टानें पाई जाती है। इनका घनत्व 3.0 से 3.5 के मध्य माना जाता है। ज्वालामुखी उद्गार से प्राप्त एवं पर्वतों के कटाव से निकली चट्टाने भी इसी प्रकार की भारी एवं अधिक घनत्व की होती हैं। होम्स के अनुसार, पर्वतों की जड़ों में सबसे अधिक भारी इकलोबाइट (eclogyte) चट्टाने भी पाई जाती है।इनका घनत्व 4.5 तक माना गया है, परन्तु इससे पृथ्वी के भीतरी भाग के घनत्व की गुत्थी और भी उलझती है क्योंकि न्यूटन एवं अन्य विद्वानों के अनुसार पृथ्वी का औसत घनत्व 5.5 है।

2. दबाव पर आधारित प्रमाण

दबाव के प्रभाव से तापमान इतना बढ़ जाता है कि अन्य दबाव के कारण ये चट्टाने पिचल सकती हैं। भौतिक पदार्थों की मात्रा बढ़ने से उनके दबाव में वृद्धि हो जाती है। दाब बढ़ने से तापमान से भी वृद्धि होती है। धरातल में गहराई पर जाने पर स्थानिक भार में वृद्धि होती है। इस दबाव के प्रभाव से मिट्टी के कण महासागर में एकत्रित तलछट (अवसाद) एवं अधिक गहराई की चट्टाने अधिक सघन एवं कठोर बन जाती है। चीका मिट्टी स्लेट बन जाती है। इसके साथ ही नीचे की ओर भिन्न संरचना वाले भारी पदार्थ होते हैं जो कि विशेष दबाव से और भी सघन हो जाते है, ज्वालामुखी के फटते समय पिघली बहाने तप्त लावा के रूप में बाहर निकलती है। धरातल से 2,000 मीटर की गहराई पर प्रति 10 वर्ग डेसीमीटर पर 200 क्विण्टल भार एवं पृथ्वी के केन्द्रीय भाग पर अनुमानतः प्रति 10 वर्ग डेसीमीटर पर लगभग 7 से 9 लाख क्विण्टल का भार पड़ता है। इससे पदार्थ अपनी स्थिर दबाव की स्थिति में पहुँच जाते हैं अर्थात् एक सीमा के पश्चात् उन्हें और अधिक नहीं दबाया जा सकता। इसी कारण अधिकांश विद्वानों का विश्वास है कि पृथ्वी का आन्तरिक केन्द्र या भू-क्रोड लोहा एवं निकिल जैसे कठोर एवं अधिक दबाव से भी अप्रभावित पदार्थों का बना है।

bhukampiya tarange

3. तापमान पर आधारित प्रमाण

सूर्य से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई जब यह सूर्य से अलग हुई तो इसमें सूर्य की भाँति आणविक क्रिया-प्रतिक्रिया होना बन्द हो गयी तथा इसकी ऊपरी सतह ठंडी होती चली गयी। पृथ्वी का आन्तरिक भाग आज भी गर्म है। होम्स के अनुसार, सियाल एवं अधःस्तर (मंटल) में आणविक पदार्थों के विखण्डन से भी गर्मी प्राप्त होती रहती है। इसके अतिरिक्त, स्थानीय रूप से भू-सन्तुलन बिगड़ने से एवं दबाव घटने से 150 से 500 किलोमीटर की गहराई के मध्य के कमजोर भागों की बहाने स्थानीय रूप से दबाव घटने से पिघलकर बाहर आने लगती है।

जैसे-जैसे पृथ्वी के धरातल की ओर जाते है। वैसे-वैसे उसके तापमान में वृद्धि होती जाती है। इसका अनुभव गहरी खान तथा गहरे कुओं में किया जाता है। कोलार (कर्नाटक) की खाने एवं दक्षिण अफ्रीका की स्वर्ण खानों में काम करने के लिए करोड़ों रुपये के उपकरण गहराई में शीतल हवा भेजने के लिए लगाए गए हैं। लॉर्ड केल्विन के अनुसार पृथ्वी के केन्द्रीय भाग का तापमान 70,000 'F के आस-पास होना चाहिए. किन्तु इससे अधिक तापमान पर समस्याएँ उत्पन्न होती है। यदि ऐसे तापमान की स्थिति होती तो आन्तरिक भाग गैसीय दशा में रहने चाहिए। भू-क्रोड (Core of the earth) के भाग में तापमान में वृद्धि सीमित या नगण्य हो जाती है। पदार्थ बहुत ऊँचे ताप, भारी दबाव व घनत्व के सम्मिलित प्रभाव से लचीले तत्वों जैसा एवं विशिष्टता से व्यवहार करते हैं। उनका भारीपन एवं ठोस अवस्था दोनों ही आवश्यक रूप से बनी तो रहती हैं, परन्तु बहुत ही ऊँचे (अति उत्तप्त) तापमान का भी विशेष प्रभाव उन पर बना रहता है क्योंकि यदि तापमान केल्विन के अनुसार बहुत ऊँचा पहुँच जाय एवं पृथ्वी का आन्तरिक भाग गैसीय हो जाय तो क्या उत्तप्त गैसीय पदार्थ शान्त व स्थिर रह सकते है? ऐसी दशा में पृथ्वी की क्या स्थिति हो सकती है? इसका सहज ही चौकाने वाला अनुमान लगाया जा सकता है, क्योंकि अन्तर्ग्रहीय एवं आकाशीय पिण्डों के गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव द्रव एवं गैसीय पदार्थों पर भिन्न प्रकार का ही होगा।

4. गुरुत्व पर आधारित प्रमाण

गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है जिससे वस्तुओं के देश में वृद्धि हो जाती है तथा उसकी गति में त्वरण उत्पन्न हो जाता है। पृथ्वी के विभिन्न भागों में त्वरण का माम भिन्न-भिन्न होता है क्योंकि इस पर पृथ्वी के आकार एवं उसकी पूर्णन गति का प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी के आन्तरिक भाग में गुरुत्वीय त्वरण का मान पहले बढ़ता जाता है और फिर कम होता जाता है जैसा कि सिम्म तालिका से स्पष्ट है।

dharti

ज्वालामुखी उद्गार के स्वरूपों जैसे लावा की प्रकृति, गैस, अन्य पदार्थों के द्वारा भू-गर्भ की अवस्था के अध्ययन में सहायता मिलती है। पृथ्वी के आन्तरिक भाग में 50 से 150 किमी की गहराई के मध्य ऐसा क्षेत्र स्थित है जहाँ पर भूतल का दबाव घटना-बढ़ता रहता है। इसका प्रभाव आन्तरिक चट्टानों की दशा पर पड़ता है। क्योंकि पृथ्वी के कई ऐसे अव्यवस्थित भाग हैं जैसे बहुत ऊँचे उठे पर्वत, गहरे सागरीय गर्त एवं दोनों का विशेष रूप से पास-पास मिलना आदि कारणों से वहाँ की धरातलीय दशाएँ, शीघ्र असन्तुलित होती रहती हैं। चट्टानों पर दबाव घटने से गर्म चट्टानें पिघली हुई अवस्था में पृथ्वी की सतह पर आने का प्रयास करती हैं तथा जहाँ असन्तुलित भागों में कमजोर भाग पाये जाते हैं। वहाँ पर भ्रंश क्रिया होती है। भूगर्भ से मेग्मा (लावा+गैसे+वाष्प+अन्य पदार्थ) ऐसे कमजोर क्षेत्रों के माध्यम से ज्वालामुखी उद्गार के रूप में सतह पर फैल जाता है। इसी कारण जहाँ-जहाँ भू-सन्तुलन के बिगड़े क्षेत्र है।

2. भूकम्प तरंगों पर आधारित प्रमाण

वर्तमान में भी सभी प्रकार के प्रशंसनीय वैज्ञानिक विकास एवं खोज के बावजूद भूगर्भ को समझने एवं प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने का माध्यम भूकम्प विज्ञान (Seismology) द्वारा प्राप्त परिणामों पर ही आधारित है। इसके अन्तर्गत भूकम्प तरंगों के प्रकार, प्रत्येक का वेग, कम्पन का स्वरूप, सहायक तरंगों का प्रभाव, गति, उनका गहराई के अनुसार बदलते स्वभाव का विशेष ज्ञान आदि का अध्ययन प्रामाणिक रूप से विशेष क्षमता वाले एवं स्पन्दनशील यन्त्रों द्वारा किया जाता है। चूँकि भूकम्प की विविध प्रकार की लहर पदार्थ की अवस्था एवं घनत्व बदलने के साथ-साथ विविध प्रकार से व्यवहार करती है, इसीलिए इनके विस्तृत अध्ययन से भूगर्भ का ज्ञान पहले से अधिक प्रामाणिकता से प्राप्त होने लगा है। भूकम्प का प्रारम्भ या उद्गम भूकम्प-मूल या उत्पत्ति केन्द्र से होता है। वहाँ से कम्पन केन्द्र या अधिकेन्द्र (Epicentre) पर एवं जिन-जिन क्षेत्रा में तरंगे पहुँचती हैं, वहाँ वह सतह पर तो विशेष प्रभाव या नुकसान (क्षति) के क्षेत्र बनाती हैं और पृथ्वी के आन्तरिक भागों में इनकी चट्टान संरचना, आन्तरिक ताप, घनत्व, अवस्था आदि के आधार पर भिन्न-भिन्न तरंगों का प्रभाव एवं व्यवहार भिन्न होता है। भूकम्प तरंग आधार स्वरूप में तीन प्रकार की होती है-

  1. प्राथमिक तरंगें (Primary Waves)
  2. गौण या द्वितीयक तरंग (Secondary Waves)
  3. धरातलीय तरंगें (Surface Waves)

1. प्राथमिक तरंगें (Primary Waves) - प्राथमिक तरंगे ध्वनि की तरंगों की तरह होती है। इन तरंगी की गति 8 से 14 किमी प्रति सेकेण्ड होती है। इस तरंग में ध्वनि के कणों की गति सीधी होती है। जिस कारण ये ठोस में अधिक गहराई तथा आसानी से प्रवेश कर जाती है तथा द्रव पदार्थों में इनकी गति कम होने लगती है, किन्तु द्रव या लचीले पदार्थों में इनकी गति कुछ कम होने लगती है। ऐसे पदार्थों में ये मोड़ लेकर आगे बढ़ती हैं। इनका प्रभाव भूकम्पलेखी (Seismograph) पर सबसे पहले अंकित किया जाता है। अतः इन्हें 'P Waves' कहते हैं।

2. गौण या द्वितीयक तरंगे (Secondary Waves) - इनकी गति तिरछी होती है। अत: इन्हें आड़ी तरंगे (Transverse waves) भी कहते है। इनके कण तरंग बढ़ने की दिशा से समकोण बढ़ते जाते है। इसीलिए ये भूसतह पर सबसे अधिक हानि पहुँचाने वाली लहरे मानी जाती है। इन्हें (S waves or secondary waves) द्वितीयक तरंग भी कहते है। इनकी गति 5 से 7 किमी प्रति सेकण्ड होती है। ठोस पदार्थों में तो ये लहरे भी अधिक गहराई तक प्रवेश कर जाती है।

3. धरातलीय तरंगें (Surface Waves) - धरातलीय तरंगों का प्रभाव धरातल पर विनाशकारी होता है तथा इनकी गति 2 किमी प्रति सेकण्ड होती है। ये तरंगे पृथ्वी के आन्तरिक भागों में प्रवेश नहीं कर पाती हैं। अतः इनसे भूगर्भ के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त करना सम्भव नहीं है।

चुम्बकीय तरंगों की क्षमता भूकम्पलेखी यंत्र द्वारा मापी जाती है। प्राथमिक तरंगे पृथ्वी भाग में प्रवेश कर आन्तरिक भाग में पहुँचती है तो इनकी दिशा वक्राकार हो जाती है। केन्द्रीय भागों में अधिक तेजी के कारण ये आवर्त की भाँति मोड़ खाती है और इनकी गति धीमी हो जाती है। इस केन्द्रीय भाग से दूसरी ओर जाने पर ये प्राथमिक तरंग पुनः अधिक वक्राकार मार्ग लेकर अपेक्षतया तेज गति से पृथ्वी के दूसरी ओर चली जाती हैं। इसके विपरीत, द्वितीयक या गौण अथवा S तरंगे भूकम्प के मूल केन्द्र से 120° मुड़कर किनारे की ओर फैल जाती हैं। यही नहीं, जो गौण या S तरंगें भीतरी भाग या भूगर्भ की और वक्राकार मार्ग से जाती हैं वे भी पृथ्वी के केन्द्रीय भाग (Core) के किनारे पर ही समाप्त या लुप्त हो जाती है। इस प्रकार 2.900 किलोमीटर के पश्चात् के केन्द्रीय भाग में गौण लहरें प्रवेश नहीं कर पाती।

छाया क्षेत्र (Shadow Zone) - भूगर्भ की ओर जाने पर जो वक्राकार मार्ग बनता है वहाँ गौण तरसे प्रवेश नहीं कर पाती है और प्राथमिक तरंगे भी यहाँ पर मोड़ लेती है। अतः भूकम्प के मूल ओर पृथ्वी के विपरीत भाग के किनारों की ओर ऐसा छाया क्षेत्र (Shadow zone) बन जाता है, जहाँ कि केन्द्र से दीनी किसी प्रकार की लहरों का प्रभाव नहीं पड़ता। इसे ही तरंग प्रभाव से मुक्त क्षेत्र या छाया क्षेत्र कहते हैं।

गौण लहरें (तरंगे ) (Secondary Waves) - इस सदी के प्रारम्भ में विशेष प्रदेशों का विस्तृत अध्ययन करते समय विशेषज्ञों ने P और S तरंगों के बीच में दो नवीन प्रकार की कम गति वाली तरंगों की खोज की है। सन् 1909 में क्रोशिया द्वीप की कुल्पा घाटी (Kulpa valley) में आये भूकम्प के निरीक्षण के समय जो तरंगों का सेट प्राप्त हुआ, उनके अध्ययन से पता चला कि प्राथमिक एवं गौण तरंगों के साथ ही उनसे कुछ कम गति वाली तरंग भी थीं। चट्टानों की सघनता के आधार पर इनका परीक्षण बाद में अन्य स्थानों पर भी किया गया। इन तरंगों को Pg व Sg तरंगे नाम दिया गया। बाद में सन् 1923 में ट्यून (Taurern नामक स्थान पर नई प्रकार की कुछ कमजोर तरंगे P व Pg के बीच एवं S व Sg के बीच कोनार्ड द्वारा अंकित की गईं। इन तरंगों का सेट भी थोड़े समय के लिए एवं कुछ धीमी गति (Feeble Velocity) से अंकित किया गया। इन लहरों को बाद में P. एवं S. कहा गया।

(1) ऊपरी परत (Upper Layer ) - सन् 1909 में क्रोशिया में आये भूकम्प के तथ्यों एवं विशेष तरंगों Pg व Sg का अन्य भागों में अध्ययन कर पता लगाया गया कि धरातल की ऊपरी परत में ग्रेनाइट जैसी चट्टानें अधिक पाई जाती है। इसे ही सियाल (SIAL) की ऊपरी परत भी कहा गया। यह ठोस अवस्था में है। यहाँ का घनत्व 2.7 है। इस भाग की ऊपरी सतह पर परतदार चट्टानों का आवरण पाया जाता है।

(2) मध्यवर्ती परत (Intermediate Layer) - सन् 1923 में ट्यून में आये भूकम्प के अध्ययन के समय तृतीय प्रकार की लहरों P व S. का पता लगा। इनके विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि प्रथम प्रकार की Pg व Sg तरंगे मध्यवर्ती परत में प्रवेश नहीं कर पाती। यहाँ पर भारी बेसाल्ट एवं ग्लासी बेसाल्ट वाली चट्टानें पाई जाती हैं, जबकि होम्स एवं वेगनर के अनुसार यहाँ पर एम्फीबोलाइट बट्टाने पाई जाती है। इस परत की मोटाई लगभग 30 किलोमीटर आँकी गई।

(3) निचली परत (Lower Layer) - इस परत में उपर्युक्त नवीन प्रकार की Pg व Sg एवं P. एवं S. तरंगें प्रवेश नहीं कर पाती अर्थात् यहाँ पर केवल P एवं S तरंग ही प्रवेश कर पाती है। इस भीतरी परत का घनत्व अपेक्षतया अधिक अर्थात् 5.5 के आसपास रहता है। यह भाग बहुत ही ऊँचे तापमान वाला होता है क्योंकि 30-35 किमी की गहराई तक तापमान 1,000°C से भी अधिक पहुँच जाता है। इससे चट्टानां के गुणों में परिवर्तन आने लगता है। फिर यहाँ इनका घनत्व भी अधिक रहता है। यह स्थिति 2,900 किमी तक पाई जाती है।

(4) केन्द्रीय भाग (Central Part ) - 2,900 किमी के बाद पुनः पृथ्वी की संरचना में महत्वपूर्ण परिवर्तन देखा जाता है। इस गहराई के पश्चात् तरंगे भूगर्भ में प्रवेश नहीं कर पाती। अतः पृथ्वी के केन्द्रीय 'भाग में केवल P तरंगें ही प्रवेश कर पाती है। इनकी भी गति यहाँ कम होने लगती है एवं उनमें विशेष वक्राकार स्वरूप आ जाता है। अतः यह भाग सर्वाधिक घनत्व वाला है। यहाँ की दशा द्रव अवस्था में या द्रव की भाँति अत्यधिक लचीली अवस्था में है। इसके साथ ही एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि पृथ्वी का केन्द्रीय भाग चारों ओर से अनन्त भार से इस भाँति दबा पड़ा है कि वहाँ की तरल या द्रव अवस्था भी लचीली तो होगी पर दृढ़ता में ठोस से भी कठोर रहेगी।

अतः भूकम्प विज्ञान एवं अन्य माध्यमां से की गई खोजों के आधार पर पृथ्वी के आन्तरिक भाग की निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं-

  1. पृथ्वी की सियाल चट्टानों से नीचे का भाग यहाँ के कमजोर स्थलों में दबाव घटने पर मेग्मा का रूप धारण कर गाढे द्रव के रूप में सतह की ओर जाने का प्रयास करता है।
  2. पृथ्वी के केन्द्रीय भाग की ओर जाने पर दबाव घनत्व तथा चट्टानों के तापमान में वृद्धि होती जाती है। टीम शैला की भाँति कठोर भी होना चाहिए।
  3. पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण या ज्वारीय शक्तियों के प्रति ठोस एवं संगठित इकाई की भाँति प्रभावित होती है या व्यवहार करती है।
  4. पृथ्वी का आन्तरिक मध्य पिण्ड या भू-क्रोड (Core) द्रव की भाँति लचीला तो है, किन्तु वह ऊँचे तापमान के प्रभाव से चट्टानें द्रव अवस्था में आ सकती है।
  5. जब भी आन्तरिक भागों में जहाँ कहीं आंशिक रूप से भी दबाव मुक्ति की दशा प्राप्त हुई, तभी ऊँचे तापमान के प्रभाव से चट्टाने द्रव अवस्था मे आ सकती हैँ।