आर्यों का राजनीतिक संगठन Aryo ka rajnitik sangthan


आर्यों का राजनीतिक संगठन

1. ऋग्वैदिक राजनीतिक संगठन - राजत्व का आरंभ युद्ध में हुआ, ऐसा साक्ष्य वेदों में है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि - देव और असुर लड़ते थे, देवों को असुरों ने हरा दिया। देवों ने अपनी हार के कारणों का विश्लेषण किया तो पता चला कि देवों का कोई राजा नहीं है इसलिए देव पराजित हो गए। इस बात से सब सहमत हो गये और उन्होंने राजा नियुक्त कर लिया। राजा की उत्पत्ति का यह सिद्धान्त वैदिक काल में प्रचलित था। वास्तव में आर्यों का जीवन कबीलाई था ।

राजनैतिक दृष्टि से वे जनों में संगठित थे। जन का संगठन एक बड़े परिवार के समान था, जिसमें यह विचार विद्यमान था कि उसके सब व्यक्ति एक आदि पुरुष की सन्तान हैं और एक ही परिवार के अंग हैं। जिस प्रकार एक परिवार में सबसे वृद्ध व्यक्ति शासन करता है, उसी प्रकार जन रूपी बड़े परिवार में भी एक पिता या मुखिया का शासन होता था। इस मुखिया को राजा कहते थे और इसकी नियुक्ति परम्परागत प्रथा के अनुसार या निर्वाचन द्वारा होती थी। एक जन की समूची जनता विश कहलाती थी। जन या विश का एक ही राजा होता था। राजनैतिक रूप से संगठित विश राष्ट्र कहलाता था। प्रत्येक जन की सम्पूर्ण जनता (विश) राजा का वरण करती थी। यह समझा जाता था कि जिसके अनुसार राजा यह उत्तरदायित्व लेता है कि वह अपनी प्रजा की सब बाह्य और आंतरिक शत्रुओं से रक्षा करेगा।

राजा का चुनाव वैदिक काल में राजा को दैवीय अधिकार नहीं दिये गये। वह स्पष्टतः प्रजा द्वारा वरण किया गया माना गया है तथा उसका कार्य शासन चलाना मात्र है। वरण करने का कार्य 'विश' के जिन प्रमुख व्यक्तियों के सुपुर्द था उन्हें राजकृत कहते थे। ये राजकृत स्वयं भी राजा कहलाते थे और राजा के पद पर चुना गया व्यक्ति इन 'राजानः राजकृत:' का मुखिया मात्र माना जाता था। इन राजकृतः लोगों के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती, परन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों में रत्नियों का उल्लेख आता है जो राज्याभिषेक के समय राजा से हविग्रहण करते थे। उनके अलावा पुरोहित, सेनापति, ग्रामणी और अन्य मुख्य कर्मचारी भी 'राजानी राजकृत:' के अन्तर्गत आते थे। सूत्र, ग्रामणी, रथकार आदि भी राजा के अभिषेक के समय उपस्थित होते थे।

भविष्य में मणि या रत्न देने वाले राजकृतः 'रत्नि' कहे गये। राजा सर्वप्रथम प्रजा के प्रतिनिधि स्वरूप इन रलियों की पूजा राजसूय यज्ञ करवाकर करता था। राजा के अभिषेक के लिए पवित्र जलों का संग्रह किया जाता था - गंगा, सरस्वती आदि निर्दिष्ट नदियों के अतिरिक्त जहाँ का वह राजा हो, उस भूमि के एक शुद्ध जलाशय का जल लेने से वह संग्रह पूर्ण होता था। इस संग्रहीत जल से राज्याभिषेक होता था। उसके बाद राजा प्रतिज्ञा करता था कि, यदि में प्रजा का द्रोह करूँ तो अपने जीवन सुकृति, संतान सबसे वंचित किया जाऊँ। राजा की पीठ पर दण्ड से हल्की चोट की जाती थी। इसका अर्थ यह था कि राजा दण्ड के ऊपर नहीं है। इस तरह राजा के ऊपर एक उत्तरदायित्व डाला जाता था ।

राजा के सहयोगी :- राजा अपने सारे कार्य अकेले करता हो ऐसी बात नहीं थी। उसकी सहायता के लिए पुरोहित, सेनानी और ग्रामणी होते थे तथा विदश, सभा, समिति द्वारा राजा पर नियंत्रण भी रखा जाता था। उसकी सहायता के लिए गुप्तचर भी होते थे। वह राजदूत भी नियुक्त करता था । वंशानुगत राज्याधिकार तभी वैध समझा जाता था जब प्रजा उसका समर्थन कर दे। इस अवधि में पुरोहितों का सम्मान बढ़ने लगा और भविष्य में इसी वर्ग से राजमंत्री पद का विकास हुआ। पुरोहित राजा को राजनीतिक विषयों पर परामर्श देते थे और उसकी, विजय, कुशलता और दीर्घायु के लिए प्रार्थना करते थे। वे पुरोहितों के अलावा राज्यमंत्री मुख्य सलाहकार, पथ-प्रदर्शक और योद्धा का भी कार्य करते थे। पुरोहित के बाद सेनानी का स्थान आता है। ये सेना के प्रधान होते थे और युद्ध में सेना का संचालन करते थे।

समिति राजा पूर्णत: स्वच्छन्द नहीं था। ऋग्वैदिक युग में राजा के कार्यों और अधिकारों को - निरंकुशता से बचाने के लिए लोकतांत्रिक संगठन थे। सभा, समिति और विदश। जनपद की सम्पूर्ण जनता (विश) की सभा को समिति कहते थे। इसमें जन की कार्यवाही होती थी। इसमें राजा और प्रजा समान रूप से उपस्थित होते थे। इसमें एकत्र हुए सभी व्यक्ति सब विचारणीय विषयों पर वाद-विवाद करते थे। समिति में विभिन्न विषयों पर खुला वाद-विवाद होता था। राजा की बागडोर समिति के हाथ में होती थी। उसकी नाराजगी राजा की विपत्ति समझी जाती थी। राजा का चुनाव, पदच्युति और पुनर्वरण समिति का ही कार्य था। ग्राम ही समिति का आधार थे।

सभा - सभा समाज के श्रेष्ठजनों का संगठन था। सभा के सदस्यों को सभासदा कहा जाता था।

सभा समूचे जन की परिषद नहीं थी । सार्वजनिक बातों का फैसला सभा में होता था और न्याय शासन से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध था। स्त्रियों को सभा में सम्मिलित नहीं होने दिया जाता था। विदश प्राचीन काल में जो संस्था वैदिक कार्यों की थी उसे ही हम विदश के नाम से जानते हैं। - विदश को जन सभा कहा गया है। प्रारंभ में सब सजातों के जमाव का नाम ही विदश था और उसी विदश से समिति और सभा विकसित मानी गयी है।

संक्षेप में हम समझ सकते हैं कि ऋग्वैदिक युग में राजनीतिक जीवन लोकतांत्रिक ढंग का था। राजा के अधिकार सीमित थे। उस पर जनता का पूर्ण नियंत्रण रहता था। वह स्वेच्छाचारी नहीं हो सकता था। राजा का प्रभुत्व क्षेत्र (भूमि) पर नहीं जन (कबीले) पर होता था। लोकतांत्रिक संस्थायें शासन और न्याय को व्यवस्थित करती थीं ।

2. उत्तरवैदिक कालीन राजनीतिक संगठन - लगभग 1000 ई. पू. से 600 ई. पू. का समय उत्तरवैदिक काल के नाम से जाना जाता है। इस समय के राजनीतिक जीवन में ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा कई परिवर्तन हुए।

(1) क्षेत्रीयता का उदयः- इस काल में राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी विशेषता थी राज्य की क्षेत्रीय अवधारणा का विकास। पहले का 'जन' का राजा अब 'जनपद' का शासक बन गया। अब कबीलों की अपेक्षा क्षेत्र (भूमि) पर शासन करने लगा था।

(2) राजपद वंशानुगत और दैवीय :- उत्तरवैदिक काल में राजा का पद वंशानुगत होने लगा था। अथर्ववेद में राजाओं के वंशानुगत होने के साक्ष्य विद्यमान हैं। वंशानुगत होने पर भी उसका औपचारिक रूप से निर्वाचन किया जाता था। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि संजय लोगों ने राजा प्रदुरीतु को निकाल दिया था जिसका राज्य पर दस पीढ़ियों से अधिकार था। उसके साथ ही राजा को अब दैवीय अधिकारों से युक्त बनाया गया। यह कार्य पुरोहितों ने किया, बड़े-बड़े यज्ञ और अनुष्ठान कराके यज्ञों द्वारा जनता के अन्दर यह विश्वास पैदा किया गया कि राजा को ईश्वर नियुक्त करता है। उसकी आज्ञा और आदेश ईश्वर के आदेश हैं।

(3) विभिन्न राज्य संस्थायें :- उत्तरवैदिक काल के अन्त तक कई बड़े-बड़े राज्य अस्तित्व में आ चुके थे! अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरह की राज्य संस्थायें अस्तित्व में आ चुकी थीं। प्राची दिशा में मगध, विदेह, कलिंग आदि में सम्राट का अभिषेक होता था और वहाँ के राजा सम्राट कहलाते थे। दक्षिण में सात्वत थे। सात्वत लोगों में भौज्य राज्य संस्था थी और वहाँ के प्रमुख शासक भोज कहलाते थे। प्रतीची (पश्चिम) स्वराज्य संस्था थी और वहाँ के राजा स्वराट कहलाते थे। उदीची (उत्तर) दिशा में प्रणाली थी और वहाँ के राज्य विराट-राजहीन जनपद थे। मध्यप्रदेश के राज्यों के शासक 'राजा' कहलाते थे। इस तरह ऐतरेय ब्राह्मण में साम्राज्य, भोज्य, स्वराज्य, वैराज्य और राज्य इन पाँच प्रकार की शासन विधियों का वर्णन किया गया है।

(4) रत्नहवींषि संस्कार :- उत्तर वैदिक काल में राजनैतिक संगठन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य था रत्नहवींषि संस्कार। यह संस्कार राजसूय यज्ञ का एक अंग था। इस संस्कार में यजमान राजा हर रलिन के घर जाता और वहाँ समुचित देवता को बलि अर्पित करता था। ये रलिन शतपथ ब्राह्मण के अनुसार होते थे - सेनानी, पुरोहित, युवराज, महिषि, सूत, ग्रामणी, क्षता (प्रतिहारी), संग्रहीता, (कोषाध्यक्ष), भागदूध (कर संग्रहकर्ता), अक्षपाद (जुआं विशेषज्ञ)। रत्नहवींषि संस्कार एक ऐसे विकसित राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संगठन की देन था जिसमें मातृसत्तात्मक तथा कबीलाई तत्वों का पतन हो रहा था तथा पितृसत्तात्मक एवं स्थायित्व जीवन का विकास हो रहा था।

(5) जनतंत्रात्मक समितियाँ :- ऋग्वैदिक युग की सभा और समिति तथा विदध का जो महत्व उस समय था। उत्तर वैदिक काल में इनका उतना महत्व नहीं रहा। यद्यपि ये अभी भी प्रचलित थीं।

(6) पेशेवर सेना का अभाव - प्रो. रामशरण शर्मा ने लिखा है कि- "उत्तर वैदिक समाज में कोई पेशेवर सेना नहीं होती थी। पशुपालक समाज की सैन्य व्यवस्था कृषि-प्रधान समाज की सैन्य व्यवस्था से बहुत भिन्न नहीं थी। युद्ध छिड़ने पर कबीले के लोगों को एकजुट किया जाता था तथा सेनानायकों एवं साधारण सैनिकों के आपसी सम्बन्ध भाईचारे पर कायम था। नियमित कर व्यवस्था के अभाव में नियमित सेना रखना संभव नहीं था। सेना, सेनानी, तथा सेनापति शब्द अनेक स्थलों पर आते हैं। तथा शतपथ ब्राह्मण में सेनानी को उन लोगों में सर्वोच्च माना गया है जिनसे राजा राज्याभिषेक के समय सम्पर्क करता था। किन्तु सेना का अर्थ केवल समूह है। इस बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता कि उत्तर वैदिक काल में राजा वर्ष भर पेशेवर सेना रखता था।"

संक्षेप में हम उत्तर वैदिक काल की राजनीतिक व्यवस्था के बारे में कह सकते हैं कि इस समय में राजा के स्वरूप और अधिकारों में वृद्धि हुई। शासन व्यवस्था सुदृढ़ होने लगी। क्षेत्रीयता राज्य का मुख्य लक्षण बन गया। राजा कर लेने लगा। सामंतवादी भावनाओं का उदय, साम्राज्यवादी नीतियों को अपनाना राजा को दैवीय अधिकारों से युक्त होना आदि प्रमुख विशेषताएँ थीं।