महादेवी वर्मा का जीवन परिचय Mahadevi Varma ka Jeevan Parichay


महादेवी वर्मा का जीवन परिचय

संक्षिप्त परिचय- छायावाद की चतुर्थ स्तम्भ के रूप में प्रसिद्ध महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च, 1907 को फर्रुखाबाद (उ.प्र.) में हुआ था। इन्होंने आरम्भिक शिक्षा घर पर ही ग्रहण की। वर्ष 1920 में प्रयाग से प्रथम श्रेणी में मिडिल उत्तीर्ण किया। सन् 1933 में प्रयाग विश्व विद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया। महादेवी जी ने प्रारम्भिक कविताएँ बृजभाषा में लिखी बाद में उन्होंने खड़ी बोली में काव्य सृजन किया। महादेवी वर्मा कवि के साथ-साथ कहानीकार, उपन्यासकार, रेखाचित्र संस्मरण आदि में भी उनकी साहित्यिक प्रतिभा को देखा जा सकता है। उनका कलाकार हृदय कवि होने के साथ-साथ चित्रकार भी था इसलिए उनकी कविताओं में चित्रों जैसी संरचना का आभास मिलता है। इनके काव्य संग्रह नीहार- 1930, रश्मि- 1932, नीरजा 1934 और सांध्यगीत- 1936 दीपशिखा 1942, सप्तपर्णा (अनुदित 1959 ) प्रथम आयाम 1974 आदि अन्य महत्वपूर्ण काव्य रचनाएँ हैं। अतीत के चलचित्र स्मृति की रेखाएँ और श्रृंखला की कड़ियाँ महत्वपूर्ण रेखाचित्र हैं। पथ के साथी, मेरा परिवार स्मृति चित्र आदि महत्वपूर्ण संस्मरण के अलावा निबंध संग्रह में इनकी अद्वितीय साहित्य प्रतिभा का परिचय मिलता है। महादेवी वर्मा की माता विदुषी महिला थी। उन्हें संस्कृत और हिन्दी का अच्छा तान था। इन्होंने महादेवी को तुलसी, सूर और मीरा का साहित्य पढ़ाया, जिससे उन्हें साहित्यिक वातावरण मिला।

इन्हें 1956 में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। वर्ष 1982 में काव्य संकलन 'यामा' के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। वर्ष 1988 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। उन्होंने अध्यायन से कार्य जीवन की शुरुआत की और अंतिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधान आचार्य बनी रहीं। हिन्दी साहित्य जगत में उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से पुकारा जाता है।

महादेवी वर्मा की कविताओं में आरम्भ से ही जिज्ञासा, पीड़ा और आध्यात्मिकता के भाव मिलते हैं। ये भाव निरन्तर अधिक प्रौढ़ और परिमार्जित होते गए हैं। इनके सभी गीतों में अनुभूति और विचार के धरातल पर एकान्विती है। इनके गीत प्रधान है। उनके विविध गीतों में व्यथा, पीड़ा, आशा और अज्ञातप्रिय के प्रति प्रणय- निवेदन और साधना की विविध अनुभूतियों के स्वर मुखरित हुए हैं। उनके प्रणय निवेदन में मिलन की कामना नहीं है- "मिलन का मत नाम लो, मैं विरह में चिर हूँ" उनकी यह वेदना मानवीय करुणा में और लोक कल्याण में परिवर्तित होते दिखाई देती है। यही करुणा उनके काव्य का स्रोत है। भाव महोदवी वर्मा की करुणा एवं लोक मंगल की साधना में बौद्ध दर्शन क प्रभाव दिखाई देता है। "करुणा बहुत होने के कारण बुद्ध संबंधी साहित्य भी म बहुत प्रिय रहा है" (आधुनिक कवि माला भाग-एक की भूमिका)

महादेवी जी उपनिषदों की परम्परा को भी स्वीकार करती हैं। अतः उनकी आध्यात्मिक साधना और लोक साधना में विशेष विरोध नहीं है। सृष्टि प्रेम ही परम सत्य के प्रति प्रेम बनकर व्यंजित हुआ है- "मैं कण-कण में ढाल रही अलि आँस के मिस प्यार किसी का।" महादेवी के काव्य में रहस्यवादी चेतना की अभिव्यति भी लोक कल्याण के साथ जुड़ने के कारण एक नये रूप में दिखाई देती है।

महादेवी के काव्य में पीड़ा की अधिकता देखकर विद्वानों ने उन्हें दुःख की गायिका कहा है। महादेवी वर्मा दुःख को सारे संसार को बांधे रखने का महत्वपूर्ण सूत्र मानती है। मनुष्यता की सीढ़ी तक पहुँचाने का माध्यम मानती है। वह कहती हैं मुझे "दुःख के दोनों ही रूप प्रिय हैं एक वह जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को सारे संसार से एक अविच्छिन्न बन्धन में बाँध देता है और दूसरा वह जो काल और प्रियतमा में पीड़ा को खोजती है।" महादेवी ने उस असीम अज्ञात प्रियतम के प्रति दाम्पत्य भाव के रूप में अपने हृदय के मधुर भावों की सुंदर अभिव्यक्ति की है। परमात्मा के प्रति अभिन्नता प्रकट करती हुई वे कहती हैं-

'बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ' तथा पात्र भी,
मधु भी, मधुप भी, मधुर स्मृति भी,
अधर भी हूँ और स्मित की चांदिनी भी

महादेवी वर्मा प्रकृति चित्रण संबंधी रचनाओं में प्रकृति में चेतना के आरोप के साथ अपने भावों की प्रतिकृति देखती हैं- "मैं नीर भरी दुःख की बदली!" तथा रूपसि तेरा घन केश पास। नभ गंगा की रजत धार में धो लाई क्या इन्हें रात ।

सन् 1930 में नीहार की भूमिका में हरिऔध जी ने कामना की थी उनकी तंत्र के अपूर्व झंकार में भारत माता के कंठ की वर्तमान ध्वनि भी श्रुत होना चाहिए।" महोदवी वर्मा के व्यक्तित्व की यह विशेषता है कि वह 'रश्मि' में हरिऔध जी के भावों का सम्मान करती प्रतीत होती है- "कह दे माँ क्या अब देखें तथा 'तेरा वैभव देखूं या, जीवन का कूदन देखूं" में उनकी पीड़ा तत्कालीन भारत की पीड़ा में समा जाती है। इसी तरह उनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना का सूक्ष्म रूप भी दिखाई देता है- 'जाग बेसुध जाग', 'जाग तुझको दूर जाना', 'पूछता क्यों शेष कितनी हे धरा के अमर सुत', तुझको अशेष प्रणाम' के माध्यम से महादेवी वर्मा - को राष्ट्रीय चेतना दीपशिखा की भाँति प्रज्वलित दिखाई देती है।

महादेवी वर्मा की भाषा भावों के अनुकूल रूप ग्रहण करते गई है। डॉ. शिव कुमार शर्मा के शब्दों में इनकी भाषा में प्रसाद का परिष्कार, निराला की संगीतात्मकता और पंत की कोमलता सभी कुछ मिलता है।" इनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग अत्यन्त स्वाभाविक ढंग से प्रयुक्त हुआ है। आपकी मृत्यु 11 सितम्बर, 1987 में हुई। व्याख्यांश -

('मैं नीर भरी दुःख की बदली महादेवी जी की कविता संग्रह 'यामा' से ली गयी है।)
मैं नीर भरी दुःख की बदली!
स्पन्दन में चिर निस्पन्द वसा, क्रन्दन में आहत विश्व हंसा,
मेरा पग परा संगीत भरा, श्वासों से स्वप्न पराग झरा,

नयनों में दीपक से जलते पलकों में निर्झरिणी मचलो! नभ के नवरंग बुनते दुकूल छाया में मलय बयार पली । मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल, चिन्ता का भार बनी अविरल, रज-कम पर जल-कण ही बरसी नवजीवन-अंकुर बन निकली। पथ को न मलिन करता आना, पद-चिह्न न दे जाता जाना, सुधि मेरे आगम की जग में सुख की सिहरन हो अन्त खिली ! विस्तृत नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना इतिहास यही उमड़ी कल थी मिट आज चली।

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ
शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में,
कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ!
नींद थी मेरी अचल निस्पद कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में,
प्रलय में मेरा पता पदचिह्न जीवन में,
नयन में जिसके जलद वह तृषित चातक हूँ,
शलभ जिसके प्राण में वह निठुर दीपक हूँ,
फूल को उर में छिपाये विकल बुलबुल हूँ,
एक हो कर दूर तन से छाँह वह चल हूँ,
दूर तुमसे हूँ अखण्ड सुहागिनी भी हूँ !
आग हूँ जिसके ढुलकते बिन्दु हिमजल के,
शून्य हूँ जिसकी बिछे हैं पाँवडे पल के,
पुलक हूँ वह जो पला है कठिन प्रस्तर में,
नाश भी हूँ मैं अनन्त विकास का क्रम भी,
त्याग का दिन भी चरम आसक्ति का तम भी,
तार भी आघात भी झंकार की गति भी,
हूँ वही प्रतिबिम्ब जो आधार के उर में,
नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ,
पात्र भी, मधु भी, मधुप भी, मधुर विस्मृति भी,
अधर भी हूँ और स्मित की चाँदनी भी हूँ।