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भक्तिकाल : पृष्ठभूमि एवं प्रमुख कवि bhaktikal prasthbhoomi evam pramukh kavi

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भक्तिकाल : पृष्ठभूमि एवं प्रमुख कवि हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल भारतीय ज्ञान संपदा के संरक्षण और अपनी अस्मिता को बनाए रखने के लिए किए गए संघर्ष के लिए रेखांकनीय है। इस्लाम के प्रचार-प्रसार हेतु किए जा रहे सशस्त्र आक्रमणकारी विदेशी जब भारतवर्ष की राजशक्तियों को दमित कर सांस्कृतिक मानमूल्यों पर प्रचंड प्रहार कर रहे थे, तब समाज के मध्य से साधु-संतों ने समाज का नेतृत्व करने के लिए अपनी काव्यमयी वाणी का सदुपयोग किया। निर्गुण काव्य के रूप में आस्थामूल्क ईश्वरभक्ति समाज का दृढ़ कवच बनी तो सगुण-काव्य के केंद्र राम और कृष्ण की असुर संहारक छवि ने समाज को आक्रामक शक्तियों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष की प्रेरणा दी। अनेक संतों ने रणक्षेत्रों में उतरकर प्रत्यक्ष संघर्ष भी किया किन्तु हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों-समीक्षकों ने भक्तिकाव्य के इस पक्ष की उपेक्षा की है और भक्तिकाल को हताश निराश समाज की भावाभिव्यक्ति के रूप में अंकित कर भ्रांतियाँ निर्मित की हैं। भक्ति-काव्य में आस्तिकता का प्रकाश, मानव मूल्यों की संचेतना और भारतीय शौर्य की संदीप्ति एक साथ प्रकट हुई है। युवा पीढ़ी को भक्ति

लोथियन ग्रीन का चतुष्फलक सिद्धान्त Lothiyan green ka chatusfalak siddhant

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लोथियन ग्रीन का चतुष्फलक सिद्धान्त लोथियन ग्रीन ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1875 में किया। यह सिद्धान्त चतुष्फलक की सामान्य विशेषताओं पर आधारित है। चार बराबर भुजाओं वाले त्रिभुजों की आकृति चतुष्फलक कहलाती है। इसके त्रिभुज सपाट तथा चपटे धरातल वाले होते हैं। उनका सिद्धान्त अग्र तथ्यों पर आधारित है— एक गोलाकार आकृति अपने धरातलीय क्षेत्र की अपेक्षा अधिक आयतन रखती है। एक चतुष्फलक आकृति अपने धरातलीय क्षेत्र की अपेक्षा कम आयतन रखती है।  लोथियन ग्रीन का सिद्धान्त फेयर बर्न की इस मान्यता पर आधारित है कि किसी गोलाकार पाइप को चारों ओर से समान दाब द्वारा दबाने पर वह चतुष्फलक की आकृति का हो जाता है। लोथियन ग्रीन का विचार है कि पृथ्वी प्रारम्भिक अवस्था में तरल थी जो धीरे-धीरे ठण्डा होने से ठोस रूप में परिवर्तित हुई। ठण्डे होने की इस प्रक्रिया में पृथ्वी का बाह्य भाग आन्तरिक भाग की तुलना में अधिक सिकुड़ गया। इस संकुचन से पृथ्वी के भीतरी भाग का आयतन भी कम हो गया तथा भूपृष्ठ एवं आन्तरिक भाग के मध्य कुछ स्थान रिक्त हो गया। इस आन्तरिक भाग पर इस ऊपरी भाग ने दबाव डालना प्रारम्भ कर दिया। इस दबा

जैफ्रे का तापीय संकुचन सिद्धान्त Jefre ka tapiya sankuchan siddhant

जैफ्रे का तापीय संकुचन सिद्धान्त जैफ्रे का मानना था कि पृथ्वी पर भू-आकृतियों का निर्माण पृथ्वी के ठण्डा होकर संकुचित होने तथा इसकी परिभ्रमण गति में कमी आने से हुआ है। जैफ्रे के अनुसार पृथ्वी का निर्माण अनेक संकेन्द्रीय खोला से हुआ है। विभिन्न चट्टानें विभिन्न कालों में ठण्डी हुई जिससे उनमें संकुचन हुआ किन्तु पृथ्वी की परतों में यह संकुचन समान रूप से नहीं हुआ। 700 किलोमीटर से अधिक गहराई पर भूक्रोण में तापीय अन्तर नहीं हुआ और न ही उसके आयतन में कोई अन्तर आया। इससे ऊपर स्थित चट्टानों में परिवर्तन हुआ अर्थात् वे नीचे वाली चट्टानों की तुलना में अधिक ठण्डी हुई। इससे ऊपर की परतों में संकुचन प्रारम्भ हुआ। प्रत्येक ऊपर वाली परत नीचे वाली परत की तुलना में अधिक ठण्डी एवं संकुचित हुई। इससे उसका आयतन भी कम हुआ। धीरे-धीरे नीचे वाली परतें ऊपरी परतों के प्रभाव से क्रमश: ठण्डी व संकुचित होती गयी। ऊपरी परत के पूर्णतः ठण्डी हो जाने के बाद भी भीतरी परत ठण्डी एवं संकुचित होती रहेगी। परिणामतः ऊपरी परत भीतरी परत से बड़ी रहेगी। इससे उसे अपनी निचली परत पर मुड़ना व टूटना पड़ेगा। इसी भाँति निचली परत को ऊपरी

गोरखनाथ कसा जीवन परिचय gorakhnath ka jeevan parichay

गोरखनाथ कसा जीवन परिचय नाथ-साहित्य के प्रारंभकर्ताओं में गोरखनाथ प्रमुख हैं। अनेक इतिहास- ग्रंथों में उन्हें गोरक्षनाथ भी कहा गया है। वस्तुतः नाथपंथ का साहित्य आदिकाल में हिन्दी भाषा के प्रादुर्भाव के साथ-साथ विकसित हुआ है। 'गोरक्ष सिद्धांत-संग्रह' में नाथ संप्रदाय के पंथ-प्रवर्तकों के नाम इस प्रकार गिनाए गए हैं- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पट, जलंधर, और मलयार्जुन। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी 'नवनाथ' मान्य किये हैं। उपर्युक्त नाथ- अनुक्रमणिका में गोरखनाथ का क्रम छठा है। इस दृष्टि से उनका समय आदिकाल के मध्य में मान्य किया जाना युक्तियुक्त है। गोरखनाथ के गुरु का नाम मत्स्येंद्रनाथ था। हिन्दी और संस्कृत में गोरक्षनाथ के नाम से रचित अनेक रचनाएँ उपलब्ध हैं किंतु उनमें से अधिकांश की प्रमाणिकता संदिग्ध है। डॉ. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से प्रकाशित 'गोरखवानी' में उनकी शब्द, पद आदि चालीस पुस्तकों को प्रस्तुत किया। उनके अनुसार 'सबदी' गोरखनाथ की सबसे अधिक प्रामाणिक रचना है। आचार्य रामचंद्र श

चंदबरदायी का जीवन परिचय chandrabardai ka jeevan parichay

चंदबरदायी का जीवन परिचय आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार चंदबरदायी का समय संवत् 1225 से 1249 विक्रमाब्द ठहरता है। चंदबरदायी की ख्याति दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट महाराज पृथ्वीराज चौहान के सखा, सामंत और राजकवि के रूप में सर्वत्र स्वीकृत है। ‘पृथ्वीराज रासो' इनकी एकमात्र प्रख्यात प्रबंधकाव्य कृति है। इनके पूर्वज पंजाब के निवासी थे और इनका जन्म लाहौर में हुआ था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ये षड्भाषा, व्याकरण, काव्य-साहित्य, छंदशास्त्र, ज्योतिष, पुराण, नाटक आदि अनेक विधाओं में पारंगत थे। इन्हें जालंधरी देवी का इष्ट था जिनकी कृपा से ये अदृष्ट काव्य भी कर सकते थे। इनका जीवन पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिलाजुला था कि अलग नहीं किया जा सकता। युद्ध में, आखेट में, सभा में, यात्रा में सदा महाराज के साथ रहते थे और जहाँ जो बातें होती थीं, सब में सम्मिलित रहते थे। इससे महाराज पृथ्वीराज और महाकवि चंदबरदायी के अंतरंग आत्मीय संबंधों का ज्ञान होता है । 'पृथ्वीराज रासो' ढाई हजार पृष्ठों का एक बृहतकाय ग्रंथ है। इस ग्रंथ की कथावस्तु 69 समय (सर्गों) में विभक्त है। महाराज पृथ्वीराज

लाप्लास का निहारिका सिद्धान्त Laplas ka Niharika siddhant

लाप्लास का निहारिका सिद्धान्त (NEBULAR HYPOTHESIS OF LAPLACE) सन् 1796 में लाप्लास ने अपनी पुस्तक 'ब्रह्माण्ड व्यवस्था का प्रतिपादन में सौरमण्डल तथा पृथ्वी के सम्बन्ध में अपना मत प्रस्तुत किया। निहारिका को सौर मण्डल की उत्पत्ति का आधार कहा गया है। इसे निहारिका सिद्धान्त कहा जाता है। लाप्लास ने काण्ट के सिद्धान्त के दोषों को मोटे तौर पर दूर करके अनेक प्रकार की प्रारम्भिक आलोचनाओं से अपने को बचा लिया। वैसे यह एक आश्चर्यजनक संयोग ही है कि ऋग्वेद में भी सृष्टि एवं सौरमण्डल की उत्पत्ति सम्बन्धी प्रारम्भिक विचार भी इससे मिलते-जुलते ही प्रस्तुत किये गये हैं। प्राचीनकाल में सौरमण्डल में अत्यधिक उष्ण आकाशीय पिण्ड भ्रमणशील अवस्था में था। ताप विकिरण होने से निहारिका की ऊपरी सतह ठंडी हो गयी तथा सिकुड़ने से उसका आयतन कम होने लगा। ऐसी कमी आने से निहारिका की भ्रमणशील गति में भूगणित के नियमानुसार' वृद्धि होती रही। गति बढ़ाने के कारण निहारिका के मध्य भाग में अनुप्रासी बल बढ़ने के कारण इसका मध्य भाग हल्का होकर बाहर उभरने लगा। यह भाग ठंडा होकर घना होने लगा तथा निहारिका का ऊपरी भाग ठंडा होकर